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ग्रामोद्धार

1915 में भारतीय राजनीति में प्रवेश करने के बाद से ही गांधीजी गांवों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर जोर देते आ रहे थे। जमीन पर बेहद दबाव और सहायक उद्योगों के अभाव के कारण, गांवों में कभी छः तो कभी बारहों महीने बेकारी बनी रहती थी। किसानों की यह असह्य दरिौता गांधीजी को एक क्षण भी चैन नहीं लेने देती थी। चरखे के प्रयोग से किसानों के कष्ट में तुरन्त कमी हो जाती थी, इसीलिए गांधीजी उसका इतना समर्थन और प्रचार करते थे। भारत की 85 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती थी, इसीलिए उनका सामाजिक और आर्थिक पुनरुत्थान देश को विदेशी शासन से मुक्त करने की आवश्यक शर्त थी। नगरों और गांवों के आर्थिक मानदण्डों और वहां प्राप्त सामाजिक सुविधाओं में जो बड़ा अन्तर था, उसे दूर करना जरूरी था। उनका सुझाव था कि ऐसा करने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि शहर से स्वयंसेवक गांवों में जाएं और वहप बस कर, गांवों नष्ट हो चुके या नष्ट हो रहे उद्योगों को फिर से चालू करने में सहायता करें और पोषण, शिक्षा तथा सफाई के स्तर को ऊंचा उठाएं।

गांधीजी जो कुछ भी कहते थे - सबसे पहले उस पर स्वयं आचरण करके दिखाते थे। इसलिए उन्होंने वर्धा से थोड़ी दूर सेगांव में बसने का निीचय किया। छः सौ की जनसंख्या वाले इस गांव में पक्की सड़क, दुकान और डाकघर जैसी मामूली सुविधाएं भी नहीं थप। यहां अपने मित्र जमनालाल बजाज की भूमि पर गांधीजी एक कमरे की झोंपड़ी में रहने लगे। बरसात में उनसे मिलने आने वालों को घुटने भर कीचड़ में से होकर चलना पड़ता था। जलवायु बहुत ही खराब थी। पेचिश और जूड़ी बुखार ने गांव में किसी को नहीं छोड़ा था। गांधीजी स्वयं बीमार पड़ गए लेकिन गांव न छोड़ने का उनका प्रण अटल रहा। वह वहाँ अकेले ही गए थे। कस्तूरबा तक को साथ आने नहीं दिया था। उन्हें आशा थी कि सेगांव के निवासियों में से ही वे ग्राम-कार्यकर्ताओं का दल बना लेंगे। लेकिन वह अपने नये-पुराने शिष्यों को सेगांव आने और वहां बसने से रोक न सके। 1937 में जब डॉ. जान माट उनसे मिलने सेगांव गए तो वहां केवल गांधीजी की कुटिया थी। थोड़े ही दिनों में उसके आसपास बांस के टट्टरों और गारेगमिट्टी की कई झोंपड़ियां बन गयप। उस बस्ती के निवासियों में प्रो. भंसाली थे, जो मौन व्रत लेकर जंगलों में नंगे घूमा करते थे और सिर्फ नीम की पत्तियां खा कर गुजर करते थे; पोलैंड निवासी मारिस फ्रिडमैन, जो हस्तशिल्प और गृह उद्योगों पर आधारित अहिंसात्मक समाज व्यवस्था के गांधीजी के आदर्श से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए थे; संस्कृत के एक प्रकाण्ड विद्वान, जिन्हें कुष्ठरोग हो गया था और जिनकी झोंपड़ी गांधीजी ने अपनी कुटिया की बगल में ही बनवा दी थी, क्योंकि वे स्वयं उनकी सेवा करते थे; एक जापानी साधु भी थे, जो गांधीजी के सेक्रेटरी महादेव देसाई के शब्दों में घोड़े की तरह काम करते थे और तपस्वी का जीवन बिताते थे।
शीघ्र ही 'सेगांव' का नाम बदल कर 'सेवाग्राम' हो गया। इस गांव में आश्रम बनाने की कोई योजना नहीं थी। यह विचार कभी गांधीजी के मन में नहीं आया और न किसी तरह का विधिवत अनुशासन ही वहां लागू किया गया। 'सेवाग्राम' शीघ्र ही गांधीजी की ग्रामगकल्याण योजनाओं का केन्ौ बन गया। वहां और आसपास के गांवों में समाज-सुधार और आर्थिक उ़ति का काम करने वाली बहुत ही संस्थाएं बन गइऔ। अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ कम पूंजी और सिर्फ गांव की ही मदद से आसानी से चलाए जाने वाले उद्योगों के विकास और विस्तार में सहायता देता था। संघ ने ग्रामीण कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का एक केन्ौ खोल दिया। 'ग्रामोद्योग पत्रिका' के नाम से, यह संस्था, अपना एक पत्र भी प्रकाशित करने लगी। और भी कुछ संस्थाएं ग्रामोद्धार के काम में लगी थप, जैसे 'गो सेवा संघ', जो गायों की दशा और उनकी नस्ल सुधारने में लगी थी तथा 'हिन्दुस्तानी तालीम संघ' जो गांधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर प्रयोग कर रहा था।

गांधीजी का हमेशा यही विचार रहा कि भारत की शिक्षा-प्रणाली अनुपयुक्त और खर्चीली है। देश की बहुसंख्यक जनता के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। जो लोग गांवों के प्राथमिक स्कूलों में जाते भी थे, वे पढ़ा हुआ शीघ्र भूल जाते थे क्योंकि जो कुछ उन्हें पढ़ाया जाता, उसका उनके नित्यप्रति के जीवन और वातावरण से कोई सम्बन्ध नहीं था। गांधीजी ने सुझाव दिया कि भारत के गांवों के अनुकूल सबसे अच्छी प्राथमिक शिक्षा का आधार हस्तशिल्प होना चाहिए। इसका उद्देश्य था, केवल किताबी पढ़ाई तो इतनी अस्थायी होती थी कि ग्रामीण बालक पाठशाला छोड़ने के कुछ ही दिनों बाद सब कुछ भूल जाते थे और जो याद रहता था, वह उनके दैनिक जीवन में कुछ भी काम न आता था। गांधीजी के विचारों के आधार पर ''बुनियादी शिक्षा'' योजना बनाई गई। इसने भारतीय शिक्षा-प्रणाली को गतिहीनता और निक्रियता से उबारा और प्रशासकों तथा शिक्षा-शास्त्रियों को नयी और प्रगतिशील दिशा में सोचने को प्रेरित किया।
ग्रामोत्थान श्रम-साध्य और समय-साध्य कार्य था। गांधीजी ने एक बार कहा था कि यह घोर उद्यमशील व्यक्तियों के लिए भी चपटी की चाल जैसा काम है। इस काम की अखबारों में बड़ी-बड़ी खबरें नहीं छपतप और ऐसा लगता है कि इससे सरकार को परेशानी भी नहीं होती। गांधीजी के कई सहयोगियों की समझ में नहीं आ पाता था कि ऐसे निरापद काम से स्वाधीनतागप्राप्ति के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने में क्या सहायता मिल सकती है। इसके विपरीत, गांधीजी के ग्रामोत्थान कार्य पर अधिकारी वर्ग की प्रतिक्रिया यह थी कि यह गांवों की जनता में विौाsह फैलाने की बड़ी सुनिश्चित योजना है। अतः भारत सरकार ने प्रान्तीय सरकारों को चेतावनी दी कि वे चौकसी रखें और गाँवों में जवाबी प्रचार करें।

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