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गिरफ्तारी और कैद

सरकार तो ऐसे ही अवसर की ताक लगाए बैठी थी। 10 मार्च, 1922 की शाम को गांधीजी अपने आश्रम में गिरफ्तार कर लिए गए। अहमदाबाद के जिला और सेशन जज, श्री ब्रूमफील्ड की अदालत में उनका मुकदमा पेश हुआ। ब्रिटिश जज बड़ी विनम्रता और सम्मान से पेश आया। कुर्सी पर बैठने से पहले कठघरे में खड़े अभियुक्त को उसने सिर झुका कर नमस्कार भी किया। उसने स्वीकार भी किया था कि भूत या भविष्य में जितने अभियुक्तों के मुकदमे उसके सामने आए या आएंगे, गांधीजी उन सबसे भि़, एक अलगे ही वर्ग के हैं। अपराध स्वीकार करके गांधीजी ने जज का काम आसान कर दिया था। उन्हें छः साल की कैद की सजा दी गयी।

एक दर्शक का कहना है कि मुकदमा पौने दो घंटे चला और सारे समय गांधीजी न केवल शान्त थे, किन्तु "ऐसे प्रस़ थे जैसे किसी उत्सव में सम्मिलित हुए हों।" सजा सुनने के बाद जज से उन्होंने कहा थाः "यह कम-से-कम सजा है जो कोई जज मुझे दे सकता है, और जहां तक मुकदमे की कार्रवाई का सवाल है, जितनी विनम्रता और सम्मान आपने प्रदर्शित किया उससे अधिक की तो मैं आशा भी नहीं कर सकता था।" वह पूना की यरवदा जेल में रखे गये। उन्हें बाहर खुले में सोने या तकिया लगाने की आज्ञा नहीं थी। लेकिन उन्होंने अतिरिक्त कपड़ों में किताबें लपेटकर उससे तकिये का काम लिया। उन्होंने जेल में करीब 150 पुस्तकें पढ़े । उनमें से हैःग हेनरी जेम्स की 'दि वेराइटीज आफ रेलिजस एक्सपीरियंस', बर्नाड शा की "मैन एण्ड सुपरमैन', बकल की 'हिस्ट्री आफ सिविलाइजेशन', वेल्स की 'आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री', गेटे का 'फाउस्ट' और किपिलिंग का 'बैरेक रूम बैलेड्स', सुबह-शाम प्रार्थना और कताई का नियम उन्होंने नहीं छोड़ा। दूसरे कामों में व्यस्त रहने के कारण जिस धार्मिक और साहित्यिक अध्ययन की अवहेलना हो गई थी, वह फिर शुरू हुआ। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि छोटे-मोटे कष्टों के होते हुए भी यह जेल-यात्रा गांधीजी के लिए, महाकवि ठाकुर के शब्दों में, "बंदी-चिकित्सा" सिद्ध हुई।


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