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अहिंसात्मक असहयोग

अहिंसात्मक असहयोग के कार्यक्रम में कौंसिलों, अंcजों द्वारा स्थापित कचहरियों और स्कूलों तथा सभी विदेशी वस्त्राsं का बहिष्कार शामिल था। अपने सहज निष्कपट भाव से गांधीजी ने आन्दोलन को कभी अवैधानिक नहप समझा क्योंकि उनके शब्दकोष में 'वैधानिक' और 'नैतिक' एक दूसरे के पर्याय थे। अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह समझते थे, कि यदि असहयोग-आन्दोलन सफल हो गया, तो उनकी प्रशासनिक व्यवस्था ठप्प हो जाएगी। लार्ड चेम्सफोर्ड ने पहले तो "हद दर्जे की बेवकूफी" कह कर इस आन्दोलन की खिल्ली उड़ाई और इसे प्रभावहीन दिखाने का प्रयत्न किया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जिनका देश में कुछ भी स्वार्थ है, उन्हें यह बरबाद कर देगा। नरम दल के कई नेताओं ने भी इस आलोचना में सरकार का साथ दिया और गांधीजी द्वारा प्रस्तावित जन-आन्दोलन के खतरों पर जोर दिया।

किसी भी राजनैतिक कार्यक्रम की सफलता के लिए उपयुक्त राजनैतिक संगठन भी होना चाहिए। यह बात गांधीजी को पच्चीस वर्ष की उम्र में ही मालूम हो गई थी, जब नेटाल के भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में नेटाल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की थी। अब अहिंसात्मक असहयोग के कुशल संगठक के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नए सिरे से ढालने की आवश्यकता गांधीजी ने अनुभव की। देश को वार्षिक समारोहों और लच्छेदार भाषण करने के मंचों की नहप, जनता के सतत सम्पर्क में रहने वाले जीवन्त और लड़ाई कर सकने की योग्यता वाले संगठन की आवश्यकता थी। नये विधान के अनुसार कांग्रेस का स्वरूप व्यापक आधार वाले पिरामिडीय ढांचे जैसा हो गया जिसमें विस्तृत आधार के रूप में तो गांवों, तालुको, जिलों और प्रान्तों की समितियां, और शिखर के रूप में कार्यकारिणी समिति तथा अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति थी।

इस प्रकार के संगठन से कांग्रेस को न केवल अधिक व्यापक आधार मिला, बल्कि यह अपने दो वार्षिक अधिवेशनों के बीच की अवधि के कार्य़ों को कुशलता से करने योग्य भी हो गई। अब तक कांग्रेस उच्च और मध्यम वर्ग की ही बपौती थी, लेकिन अब पहली बार इसके दरवाजे गांवों और शहरों में बसने वाली उस जनता के लिए खोल दिए गए, जिसकी राजनैतिक चेतना गांधीजी जगा रहे थे।

1919-20 में गांधीजी देश के सबसे बड़े राजनैतिक नेता बन गए, क्योंकि उन्होंने लोगों को मोहित कर लिया था। लोग उन्हें 'महात्मा' के रूप में श्रद्धा और भक्ति अर्पित करते। स्वेच्छा से अपनाई हुई गरीबी, सादगी, विनम्रता और साधुता आदि गुणों के कारण वह कोई ऐसे अतीतकालीन ऋषि प्रतीत होते थे, जो मानो देश की मुक्ति के लिए महाकाव्यों के बीते काल से वर्तमान में चले आए हों। देश के लाखो-करोड़ों लोग उन्हें अवतार मानने लगे थे। लोग उनका सन्देश सुनने ही नहप, किन्तु दर्शन कर पुण्य अर्जित करने भी आते थे। उनके दर्शन का पुण्यफल करीब-करीब काशी की तीर्थ-यात्रा के ही बराबर माना जाने लगा था। कभी-कभी तो गांधीजी जन-सामान्य की इस विचारहीन श्रद्धा-भक्ति से दुखी भी हो जाया करते थे। उन्होंने लिखा भी था : "महात्मा होने के कष्ट को केवल महात्मा ही जान सकता है।" लेकिन भारतीय जन-जीवन पर गांधीजी के अत्यधिक प्रभाव का मुख्य स्रोत यह अपार श्रद्धा-भक्ति ही थी।

गांधीजी ने भारतीय जनता के दिल के तारों को झनझना दिया था। साहस और त्याग की अपील पर लोगों ने अपने को न्यौछावर कर दिया, क्योंकि गांधीजी स्वयं भी साहस और त्याग की सजीव मूर्ति थे। जैसा कि चर्चिल ने कहा था, वह "नंगे फकीर" थे और उनकी इस फकीरी, संयम और आत्म-त्याग के कारण ही भारत की जनता उन्हें अपने प्राणों के इतना निकट अनुभव करती थी। उनकी प्रेरणा पाकर देश में ऐसे "फकीरों" की संख्या तेजी से बढ़ने वाली थी। वैभवपूर्ण जीवन का परित्याग कर गांधीजी के नेतृत्व में जेल जाने की प्रतिस्पर्द्धा करने वालों में मोतीलाल नेहरू, राजेन्ौ प्रसाद, चित्तरंजन दास, वल्लभ भाई पटेल और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे। इन लोगों के लिए जीवन ने एक नयी अर्थवत्ता ग्रहण कर ली थी। बड़ौदा के एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश, अब्बास तैयाबजी ने एक गांव से लिखा था : "लगता है, मेरी आयु बीस वर्ष कम हो गई है।...हे भगवान ! कैसा विलक्षण अनुभव है। साधारण व्यक्ति के लिए मेरे हृदय में प्यार उमड़ रहा है और स्वयं भी साधारण व्यक्ति हो जाना कितने बड़े सम्मान की बात है। यह फकीरी पहनावे का जादू है, जिससे सारे भेद-भाव समाप्त हो गए हैं।" असहयोग के इन्हप दिनों के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है "मैं आन्दोलन में इस प्रकार तल्लीन हो गया था कि पुराने सम्बन्धों, मित्रों और पुस्तकों को छोड़ बैठा। अखबार भी केवल आन्दोलन के समाचार के लिए पढ़ता था... यहां तक कि अपने परिवार, पत्नी अंाSर बेटी को भी करीब-करीब भूल बैठा था।"

1920 की शरद ऋ'तु से असहयोग आन्दोलन में तेजी आई। शुरू में तो सरकार का –ष्टिकोण सतर्कता बनाए रखने का था। क्योंकि सरकार उदार विचार के लोगों को विमुख नहप करना चाहती थी, इसलिए वह कठोर दमन-चक्र नहप चलाना चाहती थी। अप्रैल, 1921 में भारत आने के बाद शीघ्र ही नये वाइसराय लार्ड रीडिंग गांधीजी से मिले। अपने पुत्र को लिखे निजी पत्र में लार्ड रीडिंग ने स्वीकार किया कि, ऐसे असाधारण आगन्तुक से मिल कर, उन्हें भावावेग ही नहप, करीबगकरीब रोमांच भी हो गया था। उसी पत्र में उन्होंने गांधीजी के धार्मिक और नैतिक विचारों की सराहना की है। साथ ही लार्ड रीडिंग ने यह भी कहा कि गांधीजी द्वारा राजनीति में धार्मिकता और नैतिकता का प्रयोग उनकी समझ में नहप आया।

1921 के पूरे वर्ष में सरकार और कांग्रेस के बीच तनाव बढ़ता ही गया। गांधीजी और लार्ड रीडिंग के विचारों में भि़ता बनी रही। सितम्बर 1921 में खिलाफत के प्रमुख नेता मौलाना मोहम्मद अली और मौलाना शौकत अली गिरफ्तार किये गये। इन दोनों बन्धुओं को भारतीयों को सेना में भरती न होने देने और जो भरती हो चुके हैं, उनसे नौकरी छोड़ देने का आग्रह कर उन्हें विौाsह करने के लिए भड़काने का दोषी बताया गया। गांधी और दूसरे भारतीय नेताओं ने भी यह अपराध किया था। इस चुनौती को स्वीकार न करना सरकार के लिए कठिन था। सरकार की यह आशा कि आन्दोलन आपसी मतभेद अथवा जनता की उदासीनता से नष्ट हो जाएगा, गलत सिद्ध हुई। करीब 30,000 असहयोगी गिरफ्तार किये गये। गांधीजी को गिरफ्तार करने के लिए सरकार सुअवसर की प्रतीक्षा में थी। प्रिंस आफ वेल्स के भारतगआगमन के समय, अशोभनीय घटनाएं रोकने के उद्देश्य से, लार्ड रीडिंग दिसम्बर 1921 में गांधीजी तथा अन्य नेताओं के साथ गोल-मेज सम्मेलन करके समझौता कर लेना चाहते थे। लेकिन लार्ड रीडिंग इस स्थिति में नहप थे कि वह भारतीयों को महत्वपूर्ण राजनैतिक अधिकार दे सकें। इस बीच गांधीजी पर उनके साथियों का दबाव बढ़ता जा रहा था कि वह सविनय अवज्ञा-आन्दोलन शुरू करें। दिसम्बर, 1921 में अहमदाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन में गांधीजी को जन-आन्दोलन शुरू करने का पूरा अधिकार दे दिया गया था। गांधीजी के शब्दों में जनता द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन "एक भूकम्प होता है, राजनैतिक पैमाने पर एक भारी उथल-पुथल सरकार बिल्कुल ठप्प हो जाती है; पुलिस थाने, अदालतें और सरकारी दफ्तर आदि सरकार की सम्पत्ति नहप रह जाते। जनता उन्हें अपने अधिकार में ले लेती है।" गांधीजी धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहते थे। वह सविनय अवज्ञा को पहले एक जिले में शुरू करना चाहते थे। वहां सफल हो जाने पर दूसरे में, फिर तीसरे जिले में। उनकी योजना थी कि इसी तरह सारे देश में उसे फैलाया जाए। उन्होंने बहुत साफ चेतावनी दे दी थी कि यदि देश के किसी भाग में, किसी भी रूप में, हिंसात्मक घटनाएं हुइऔ तो आन्दोलन नहप रह सकेगा, जैसे "एक तार के टूट जाने से भी वीणा का स्वर बेसुरा हो जाता है।"

नवम्बर 1921 में, प्रिंस आफ वेल्स के आगमन पर बम्बई में जो दंगा हुआ उससे गांधीजी सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ न करने पर विवश हो गए थे। लेकिन गांधीजी पर उनके साथियों का दबाव बढ़ता जा रहा था, इसलिए दो महीने बाद उन्होंने गुजरात के बारदोली तालुके में कर न देने का आन्दोलन चलाने का निीचय किया। यह कदम वह क्यों उठाना चाहते थे, इसके कारण उन्होंने वाइसराय को लिख भेजे। सरकार ने इसे चुनौती समझा और इस तरह राष्ट्रवादी दल और सरकार, दोनों ही सीधी टक्कर के लिए आमने-सामने आ खड़े हुए। गांधीजी ने वाइसराय को पत्र पहली फरवरी, 1922 को लिखा था। तीन दिन बाद उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे चौरीचौरा में पुलिस और कांग्रेस जुलूस के बीच भिड़न्त हो गई। जुलूस ने थाने में आग लगा दी और पुलिस के 22 सिपाही मारे गए।

गांधीजी के विचार में चौरीचौरा हत्याकांड खतरे का संकेत था। वह इस बात की चेतावनी थी कि देश के वातावरण में ऐसे विस्फोटक तत्व विद्यमान हैं कि वे अभी जनगसत्याग्रह के लिए उपयुक्त नहप हैं। उन्होंने कदम पीछे हटाने, बारदोली में सविनय अवज्ञा की योजना को रद्द करने, असहयोग-आन्दोलन के आक्रामक अंश को स्थगित करने और हाथ से कताई, साम्प्रदायिक एकता, अस्पृश्यता-निवारण आदि रचनात्मक कार्यक्रमों पर जोर देने का निीचय किया। गांधीजी के इस काम से उनके निकटतम सहयोगियों को आघात पहुंचा और वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। उनकी प्रतिक्रिया को रोमां रोलां ने अपने शब्दों में बड़ी खूबी से व्यक्त किया है "यह बड़ा ही खतरनाक है कि पहले तो सम्पूर्ण राष्ट्रबल संगठित और एकताबद्ध कर लोगों को आन्दोलन के लिए लालायित किया जाए, अन्तिम आदेश देने के लिए बांह उठा ली जाए, लेकिन आदेश देने के क्षण में बांह नीचे गिरा दी जाय और उस महान दुर्जेय संगठन को, जो गतिशील हो चुका हो, दृढ़तापूर्वक रोक दिया जाए। तेजी से भागती मोटर को एकदम रोकने से ब्रेक तो टूटेंगे ही, गतिशक्ति के टूट जाने का भी खतरा होता है।" वाइसराय लार्ड रीडिंग ने अपने मन की बात अपने पुत्र के नाम पत्र में प्रस़तापूर्वक व्यक्त की थी "गिरफ्तारी के छः सप्ताह पहले गांधीजी ने जो असाधारण बात की, उससे उनकी राजनैतिक प्रतिष्ठा पर जैसे पानी फिर गया।"


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