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प्रतिक्रिया और उत्कर्ष

गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद शीघ्र ही उनके अनुयायियों में गम्भीर मतभेद के लक्षण प्रकट होने लगे। कुछ प्रमुख कांग्रेसी-नेताओं ने, जिनमें मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास भी थे, यह मत प्रकट किया कि कौंसिलों का बहिष्कार समाप्त कर देना चाहिए। प्रांतीय और केन्ौाhय लेजिस्लेटिव कौंसिलों के चुनाव में भाग लेने के लिए उन्होंने स्वराज पार्टी का गठन किया। उनकी राय में कौंसिल प्रवेश शत्रु के गढ़ को जीतने के उद्देश्य से उसके अन्दर घुसना था। वल्लभभाई पटेल, राजगोपालाचारी और दूसरे लोग जो मूल असहयोग कार्यक्रम में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहप चाहते थे ``अपरिवर्तनवादी`` कहलाए।

 

1923 के पूरे वर्ष में कांग्रेस राजनीति में अस्थिरता बनी रही। कुछ लोगों ने कांग्रेस कार्यकारिणी समिति तथा कांग्रेस महासमिति से इस्तीफा दे दिया, लोगों की नीयत पर शुबहा किया गया, ``नियमापत्तियों`` के प्रश्न उठाए गए और कांग्रेस संविधान पर अति विस्तारपूर्वक बहस हुई। सितम्बर, 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में स्वराज पार्टी वालों को अगले नवम्बर में होने वाले कौंसिलों के चुनाव में उम्मीदवार खड़े करने की अनुमति दी गई। यद्यपि चुनाव लड़ने की तैयारी के लिए मुश्किल से दो महीने मिले, फिर भी स्वराज पार्टी को केन्ौाhय विधान सभा में काफी सीटें मिली, प्रान्तीय विधान मण्डलों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला और मध्य प्रान्त की परिषद में तो बहुमत ही मिल गया। मोतीलाल नेहरू ने केन्ौाhय विधान सभा में और चित्तरंजन दास ने बंगाल की प्रांतीय परिषद में अपने दल का नेतृत्व संभाला।


गांधीजी ने जेल में अभी दो साल की ही कैद पूरी की थी कि वह फरवरी 1924 में एपेन्डिसाइटिस का आपरेशन होने के बाद छोड़ दिए गए। उनके अपरिवर्तनवादी भक्तों को आशा थी कि गांधीजी उनका समर्थन करेंगे लेकिन ऐसा नहप हुआ। इसके विपरीत पार्टी में फूट रोकने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया। कांग्रेसी ``विौाsही`` स्वराजिस्टों के प्रति उन्होंने सद्भावना के कई संकेत किए और राजनैतिक मंच पर उनकी प्रधानता बनी रहने दी। वाइसराय ने इंग्लैंड भेजे एक पत्र में लिखा थाः ``गांधीजी अब दास और नेहरू का पुछल्ला बन गये हैं, यद्यपि ये लोग अपनी ओर से हर संभव प्रयत्न करते हैं कि गांधी और उनके साथी यही सोचें और समझें कि गांधीजी उनके सरदार नहप, तो सरदारों में से एक तो जरूर हैं।``


जेल से छूटने के बाद गांधीजी को यदि पहली निराशा कौंसिल-प्रवेश के प्रश्न पर कांग्रेसजनों की आपसी फूट से हुई, तो दूसरी ओर उससे बड़ी निराशा साम्प्रदायिक फूट के कारण हुई। असहयोग-आन्दोलन के उभार के दिनों की हिन्दू-मुस्लिम एकता की तो अब सिर्फ याद रह गई थी। पारस्परिक विीवास का स्थान गहरे अविीवास ने ले लिया था। साम्प्रदायिक दंगे तो हो ही रहे थे, अखबारों और राजनीति में एक नयी तरह की कटुता भी आ गई थी। ऐसे लोगों की कमी नहप थी जो असहयोग-आन्दोलन को खिलाफत से सम्बद्ध किए जाने को इसका कारण मानते थे और गांधीजी को इस बात के लिए दोषी ठहराते थे कि उन्होंने समय से पहले उकसा कर जनता के साथ खिलवाड़ किया है। गांधीजी ने इसका यह कहकर जवाब दिया थाः जनता को जगाना तो राजनैतिक प्रशिक्षण का आवश्यक अंग था। जागी हुई जनता को फिर से सुलाने के लिए तो मैं कुछ नहप करूंगा। लेकिन वह यह भी चाहते थे कि जनता की जागृति का उपयोग रचनात्मक कार्य़ों में हो। शिक्षा के द्वारा दोनों सम्प्रदायों की मानसिक जड़ता दूर करने की आवश्यकता का भी वह अनुभव करते थे। उनके मतानुसार अहिंसा, देश की स्वतंत्रता की ही नहप, साम्प्रदायिक शान्ति की भी कुंजी थी। सर तोड़ना दो दिलों को मिलाने का तरीका नहप है। यदि सभ्य समाज में अहिंसात्मक उपायों से वैयक्तिक झगड़े निपटाए जा सकते हैं तो दो वर्ग़ों के बीच मतभेदों को दूर करने में हिंसा से क्यों नहप बचा जा सकता ? ये मतभेद पारस्परिक सहिष्णुता और आपसी समझौते से दूर हो सकते हैं।


सितम्बर 1924 में अपने को ``शुद्ध करने`` तथा ``लोगों को प्रभावित कर सकने की अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए`` गांधीजी ने इक्कीस दिन का उपवास किया। उपवास से शान्ति तो हुई, पर थोड़े ही समय के लिए। साम्प्रदायिक झगड़ों का अन्त नहप हुआ। समस्या जिस रूप में उभर कर सामने आयी, वह थी, दोनों सम्प्रदायों के पेशेवर लोगों के बीच राजनीतिक शक्ति से होने वाले लाभ के लिए लड़ाई। यह रोटी के उन टुकड़ों के लिए छीना-झपटी थी जो अंग्रेज भारतीय राजनीतिज्ञों को दे रहे थे। गांधीजी ने घोषणा की कि बहुसंख्यक समुदाय को आत्म-बलिदान का आदर्श उपस्थित करना चाहिए। मुसलमानों ने स्वयं गांधीजी द्वारा बाद में पेश किए गए इस प्रस्ताव की खिल्ली उड़ायी कि वे गांधीजी द्वारा दिये गये कोरे चेक को चाहे जहां भुना लें। कोरे चेक तुल्य इस प्रस्ताव से हिन्दुओं में रोष पैदा हुआ। कोरे चेक की यह बात, विधानमण्डलों में सीटों और सरकारी नौकरियों के लिए तू-तू मैं-मैं के प्रति, गांधीजी के –ष्टिकोण की प्रतीक थी। दुर्भाग्यवश इस विषय पर समझौते की बातचीत में हिन्दुओं ने मुसलमानों के साथ वही व्यवहार किया जो ब्रिटिश सरकार का भारतीय राष्ट्रीयता के साथ था, उन्हें रियायतें तो दप, लेकिन बहुत ही थोड़ी और समय निकल जाने पर।


अगले तीन वर्ष़ों में, राष्ट्र की राजनीति में साम्प्रदायिकता और विधानमण्डलों में उठने वाले विवादों की प्रधानता बनी रही। गांधीजी राजनीति से अलग हो गए। यह कहना ज्यादा सही होगा कि उन्होंने अपने को उस समय के राजनैतिक विवादों से अलग रखा और अपना पूरा समय `नीचे से ऊपर तक` राष्ट्र का निर्माण करने के कम प्रचारित लेकिन अधिक महत्वपूर्ण काम में लगाया। उन्होंने रेल, मोटर या बैलगाड़ी, जो भी सवारी मिली, उससे देश का एक छोर से दूसरे छोर तक दौरा किया। वह जहां भी जाते, लोगों से बालगविवाह और छूतगछात की युगों पुरानी सामाजिक कुरीतियों को छोड़ने और चरखा चलाने का आग्रह करते। चरखे की सिफारिश मुख्य रूप से गांवों की सम्पूर्ण अथवा आंशिक बेकारी मिटाने के लिए की गई थी, लेकिन गांधीजी ने उसे ग्रामोद्योग के एक सरल उपकरण से ऊंचा उठा कर कुछ और बना दिया। इस प्रयास में कि लोग चरखे का अपना लें, गांधीजी ने उसके गुणों को बड़े रोमांचकारी ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने इसे आर्थिक बीमारियों का रामबाण इलाज ही नहप, राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता का मूलमत्र बताया। चरखा विदेशी राज्य के विरोध का प्रतीक हो गया। खादी ने राष्ट्रीयता प्रदर्शन करने वाले परिधान का रूप ले लिया और जैसा कि जवाहरलाल नेहरू ने एक बार सरस भावना से कहा था, यह ``आजादी की वर्दी`` बन गयी।

1929 तक भारतीय राजनीति उस रोग से मुक्त होने लगी थी जिसने सात साल पहले असहयोग आन्दोलन के विफल हो जाने के बाद उसे पकड़ लिया था। औद्योगिक मजदूरों, किसानों और मध्यवर्गीय युवकों में असंतोष उत्प़ हो जाने से इस स्वास्थ्यगलाभ में मदद मिली। श्रमिक संघ लड़ाकू संस्थाएं बन गए। अभूतपूर्व आर्थिक मन्दी के कारण किसान विपत्ति में थे। जिस गुजरात सूबे के गांधीजी रहने वाले थे, वहां उनके योग्य नायब वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली में सरकार को कर न देने का नाटकीय संघर्ष चल रहा था। जिस स्वराज पार्टी ने गांधीजी के कार्यक्रम का विकल्प घोषित किया था, वह भी 1928 तक बुरी तरह निराशाग्रस्त हो चुकी थी। फूट तथा अपने सदस्यों द्वारा दल बदलने से पार्टी कमजोर पड़ गई थी।


1919 के संवैधानिक सुधारों के परिणामों तथा स्वशासन की ओर प्रगति की संभावनाओं पर अपनी राय देने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने नवम्बर 1927 में सर जान साइमन के नेतृत्व में एक शाही कमीशन की नियुक्ति की घोषणा की। कमीशन में ब्रिटेन के राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि थे, पर कोई भारतीय न था। सब के सब गोरे थे। भारत में उस कमीशन को देशवासियों के स्वतंत्र होने की योग्यता का विदेशी परीक्षक समझा गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ``हर जगह और हर तरह से`` उसके बहिष्कार का निीचय किया। यहां तक कि जिन नरम दलीय लोगों और मुसलमान राजनीतिज्ञों के सहयोग की सरकार ने पूरी आशा लगा रखी थी, उन्होंने भी एकमत होकर कमीशन का विरोध किया।


कंजर्वेटिव पार्टी के भारत सचिव श्री बरकनहैड ने यह चुनौती दी कि भारतीय अपने लिए जिस तरह का विधान चाहते हैं, उसकी रूपरेखा प्रस्तुत क्यों नहप करते ? इससे भारतीय नेता अति संतप्त हुए और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक सर्वदलीय समिति ने स्व-शासित भारत के लिए संविधान का मसौदा बनाया जो नेहरू रिपोर्ट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसने औपनिवेशिक स्वराज्य को आधार मान कर अपने सुझाव दिए। कांग्रेस, नरम दल और दूसरे राजनैतिक गुटों के बीच कम से कम जितनी बातों पर सहमति हो सकती थी, वही इस रिपोर्ट में थप। बंगाल के ओजस्वी युवा नेता सुभाषचन्ौ बोस के नेतृत्व में कांग्रेस के युवा सदस्यों, और मोतीलाल नेहरू के ही पुत्र जवाहरलाल नेहरू ने औपनिवेशिक स्वराज्य को अस्वीकार कर दिया। लेकिन दिसम्बर, 1928 के कलकत्ता अधिवेशन में गांधीजी द्वारा बनाए गये समझौता फार्मूले से फूट टल गई। एक प्रस्ताव में नेहरू रिपोर्ट को इस शर्त पर स्वीकार किया गया कि अगर 31 दिसम्बर, 1929 तक सरकार ने इसे स्वीकार नहप किया, तो कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता की मांग करेगी और आवश्यक हुआ तो उसके लिए अहिंसात्मक असहयोग भी करेगी।


कलकत्ता कांग्रेस ने गांधीजी के राजनीति में लौट आने का मार्ग साफ कर दिया। मगर ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की मांग को अस्वीकार कर दिया और स्वीकार किए जाने की संभावना तो नगण्य थी तो कांग्रेस असहयोग आन्दोलन चलाने के लिए वचन-बद्ध हो चुकी थी, और सभी जानते थे कि केवल गांधीजी ही ऐसे आन्दोलन का संचालन कर सकते थे।


ब्रिटेन में आम चुनाव होने के कारण मई, 1929 में रैमजे मेकडानल्ड के नेतृत्व में मजदूर पार्टी की सरकार ने शासन संभाला। वाइसराय लार्ड इरविन इंग्लैंड गये और 1929 के अक्तूबर महीने के अन्त में वहां से लौटने पर एक वक्तव्य में कहा कि 1917 की घोषणा में निहित है कि भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक परिणाम औपनिवेशिक स्वराज्य है। यही विकास उस घोषणा का उद्देश्य है। इस वक्तव्य का देश में अच्छा स्वागत हुआ। लेकिन इसे लेकर इंग्लैंड में मजदूर सरकार और लार्ड इरविन पर आलोचना का जैसे तूफान आ गया। वहां के समाचार पत्रों और संसद में इस घोषणा पर काफी समय तक आलोचना चलती रही। सरकारी प्रवक्ताओं ने लीपापोती करके जान बचाने की कोशिश की। उन्होंने बलपूर्वक कहा कि इसमें मूलभूत परिवर्तन का कोई संकेत नहप है। नीति तो वही पुरानी है। सरकार और कांग्रेस के बीच दरार बनी रही। लाहौर में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन के पहले, वाइसराय और महात्मा गांधी के बीच दिल्ली में 23 दिसम्बर को एक भेंट का आयोजन कर समझौते का अन्तिम प्रयास किया गया, लेकिन इस भेंट का भी कोई परिणाम न निकला।

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