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दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन

जब 1907 में ट्रंसवाल में एशियाई पंजीकरण विधेयक पास हो गया, तब गांधीजी को यह विीवास हो गया कि गत चौदह वर्ष़ों में वह विरोध प्रकट करने, याचिकाएं देने और प्रार्थना की जिस कार्य-विधि का –ढ़ता से अनुसरण करते रहे थे, वह असफल रही। इसी परिस्थिति में उन्होंने एक नयी कार्यगविधि का विकास किया, जो `पैसिव रेजिस्टेंस` या `निक्रिय प्रतिरोध` कहलाई। इसमें शाब्दिक और शारीरिक बल-प्रदर्शन की पूरी मनाही थी। इंग्लैंड में मताधिकार की मांग करने वालों की ओर से जो संघर्ष चलाया गया था, वह आन्दोलन कई महत्वपूर्ण बातों में उससे भि़ था। आने वाले महीनों और वर्ष़ों में गांधीजी के सिद्धान्त और कार्य-विधि दोनों धीरे-धीरे विकसित होने को थे। इस आन्दोलन के प्रवर्तक के लिए सिद्धान्त और आचरण, दोनों का परस्पर अटूट संबंध था।

इस छोटी-सी जीवनी में गांधीजी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में सात वर्ष तक चलाए गए सत्याग्रह-आन्दोलन की विस्तारपूर्वक चर्चा करना सम्भव नहीं है। अल्पसंख्यक भारतीय समुदाय को, सरकार से लोहा लेने के लिये राजी करने में, बड़े साहस, धैर्य और संगठन-कौशल की जरूरत थी। गांधीजी को कई बातों का ध्यान रखना था; प्रबल यूरोपीय जन समाज की असीम राजनैतिक शक्ति और विपुल आर्थिक साधन, दक्षिण अफ्रीका की स्थानीय सरकार की हठधर्मिता, ब्रिटेन के उपनिवेश विभाग की प्रिटोरिया-सरकार की नीति का विरोध करने की अनिच्छा और विदेश में जीवित रहने के लिए संघर्ष में लगे अल्पसंख्यक भारतीयों के अति सीमित साधन। स्वयं गांधीजी को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था। जनवरी 1908 में पंजीकरण कानून तोड़ने के अपराध में वह गिरफ्तार किए गए और जेल में डाल दिए गए। अगले महीने सरकार के साथ तथाकथित समझौता हो जाने के बाद वह छोड़ दिए गए। कुछ दिन बाद एक भारतीय ने उन पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अपने देशभाइयों के साथ विीवासघात किया है। उसने उन्हें पीटा जिससे वह गंभीर रूप से घायल हुए।

ट्रंसवाल-सरकार के साथ किया गया समझौता अधिक दिन नहीं चला और फिर सत्याग्रह-आन्दोलन चलाना पड़ा। भारतीयों ने कानून तोड़े और सरकार ने दमन-चक्र चलाया। गांधीजी ने जोहान्सबर्ग से 21 मील दूर 1100 एकड़ जमीन पर टालस्टाय फार्म के नाम से एक छोटी-सी बस्ती बसाई। वहां एक सहकारी फार्म चला कर सत्याग्रह संग्राम में उनके सहयोगी तथा परिवार के लोग बहुत थोड़े में और बड़ी कठिनाई से अपनी गुजरगबसर करते थे। सच पूछा जाए तो वहां उनका जीवन जेल से भी कठोर था। उस समय का वर्णन करते हुए गांधीजी ने बाद में कहा थाः "हम सभी मजदूर बन गए थे। हमारा पहनावा भी मजदूरों का था, पर यूरोपीय ढंग का यानी मजदूरों के पहनने के पतलून और कमीज, जो कैदियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े की तरह के थे।" जिन्हें अपने निजी काम से जोहान्सबर्ग जाना होता था, वे पैदल आते-जाते। यद्यपि गांधीजी चालीस साल से अधिक उम्र के थे और सिर्फ फल खाते थे लेकिन एक दिन में चालीस मील चलना उनके लिए बड़ी बात न थी। एक बार तो उन्होंने दिन भर में 55 मील की यात्रा की थी फिर भी पस्त नहीं हुए। टालस्टाय फार्म के सभी निवासियों तथा उनके बच्चों के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य था। इतने कठोर अनुशासन में रहने वालों को जेल का भय ही क्या हो सकता था?

उस समय के प्रख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ गोखले ने 1912 में दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की और जनरल स्मट्स तथा मंत्रिमण्डल के अन्य सदस्यों से भारतीयों की समस्याओं पर बातचीत की। जब वह भारत लौटे तो वह समझते थे कि एशियाटिक रजिस्ट्रेशन ऐक्ट (एशियावासियों से सम्बद्ध पंजीकरण विधेयक) और गिरमिट-मुक्त मजदूरों पर लगाया गया तीन पौण्ड का घृणित कर रद्द कर दिया जाएगा। ऐसा तो हुआ नहीं; इसके विपरीत, भारतीय वहां के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से और भड़क उठे, जिसके अनुसार दक्षिण अफ्रीका में गैर-ईसाइयों की शादियां अवैध घोषित कर दी गई। तब गांधीजी ने संघर्ष का वह दौर शुरू किया जो अन्तिम सिद्ध हुआ। ग्यारह महिलाओं के एक दल ने, जिस में गांधीजी की धर्मपत्नी कस्तूरबा भी थप, बिना अनुमतिपत्र के नेटाल के ट्रंसवाल में प्रवेश किया और जेल गइऔ। न्यू कैसिल की कोयले की खानों के भारतीय मजदूरों ने उनकी गिरफ्तारी के विरोध में हड़ताल कर दी। खान के मालिकों ने उन क्षेत्रों का बिजली-पानी काट दिया जहां ये मजदूर रहते थे। गांधीजी के सामने इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं था कि वह खान के मजदूरों और उनके परिवार के भरणपोषण का प्रबन्ध करते। इनमें 2037 पुरुष, 127 स्त्रियां और 57 बच्चे थे। उन्होंने निीचय किया कि वह लोग न्यू कैसिल से पैदल चल कर टालस्टाय फार्म आ जाएं। लेकिन रास्ते में गांधीजी गिरफ्तार कर लिए गए। वोक्सरस्ट जेल में गांधीजी से पत्थर खुदवाने और जेल के अहाते में झाडू लगाने का काम लिया जाता था। बाद में वह प्रिटोरिया की जेल में भेज दिए गए और दस फुट लम्बी, सात फुट चौड़ी काल-कोठरी में बन्द कर दिए गए, जहां हर वक्त अंधेरा रहता था। रात में कैदियों की निगरानी के समय ही इसमें प्रकाश पहुंचता था। इसमें गांधीजी को बेंच भी नहीं दी गई, कोठरी में चलने की अनुमति भी नहीं मिली; और छोटे-मोटे जो दूसरे कष्ट दिए गए, उनकी तो कोई गिनती ही नहीं। एक मुकदमे में गवाही देने के लिये बुलाए जाने पर वह अदालत में हथकड़ी-बेड़ी डाल कर ले जाए गए। उधर, भारतीय मजदूर विशेष रेलगाड़ी द्वारा वापस न्यू कैसिल की खानों पर ले जाए गए, जहां घुड़सवार सैनिक सिपाहियों ने उन्हें खानों में काम करने को मजबूर किया। दक्षिण अफ्रीकी सरकार के बर्बर दमन ने भारत में खलबली मचा दी। गोखले ने गांधीजी की सहायता के लिए दो उत्साही ईसाई युवकों, सी.एफ. एंड्रयूज और पीयरसन, को वहां भेजा। उस समय के वाइसराय लार्ड हार्डिग ने साहसपूर्वक दक्षिण अफ्रीकी सरकार की नीतियों की भर्त्सना की। भारत और ब्रिटिश सरकार का दबाव पड़ने के कारण गांधीजी और दक्षिण अफ्रीकी सरकार के बीच बातचीत शुरू हुई। अन्ततः एक समझौता हुआ। जिन प्रमुख मांगों को लेकर सत्याग्रह संघर्ष चलाया गया था, वे स्वीकार कर ली गइऔ। गिरमिट-मुक्त मजदूरों पर लगाया गया तीन पौण्ड का कर रद्द कर दिया गया, भारतीय रीति-रिवाजों के अनुसार सम्प़ विवाहों को वैधता दी गयी, अंगूठे की छाप वाले अधिवासी प्रमाणपत्र को दक्षिण अफ्रीका में प्रवेश करने और रहने के प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

सत्याग्रह-संग्राम के करीब चौथाई शताब्दी बाद दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के मुख्य विरोधी जनरल स्मट्स ने लिखा था : "गांधीजी जो थोड़ा सा विश्राम और एकान्त चाहते थे, वह उन्हें जेल में मिल गया। उनके लिए तो मानो सब कुछ उनकी योजना के अनुसार ही हो रहा था। कानून और व्यवस्था के संरक्षक के रूप में मुसीबत तो मेरी थी, एक ऐसे कानून को अमल में लाने का कलंक, जिसके पीछे किसी प्रकार का दृढ़ जनमत नहीं था; और फिर उसी कानून को वापस लेने की हार ! लेकिन गांधीजी को क्या, उनका व्यूह-भेदन तो सफल हो गया था।"

इस कारावास में गांधीजी ने जनरल स्मट्स के लिए एक जोड़ी चप्पल खुद बनाई थी। जनरल ने बाद में लिखा कि उनके मन में भी गांधीजी के प्रति किसी तरह का व्यक्तिगत द्वेष या घृणा भाव नहीं था। जब लड़ाई खत्म हो गयी तो, "दोनों के बीच ऐसा सुखद वातावरण पैदा हो गया, जिसमें शान्ति और सौहार्द की स्थापना हो सके।"


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