| | |

अंधियारे महाद्वीप में

गांधीजी 1893 के मई महीने में डरबन पहुंचे। उनको काम देने वाले दादा अब्दुल्ला, जो नेटाल के भारतीय व्यापारियों में सबसे धनी थे, उन्हें डरबन की कचहरी दिखाने ले गये। वहां जब यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने गांधीजी को अपनी पगड़ी उतारने की आज्ञा दी, तो वह आज्ञा मानना अस्वीकार करके अदालत के कमरे से बाहर निकल गये और उसी समय इस घटना के विरोध में स्थानीय समाचारपत्रों को जोरदार पत्र लिखा। वहां के समाचारपत्रों ने इस संवाद के सम्बन्ध में गांधीजी के लिए "अनचाहे मेहमान" शब्दों का प्रयोग किया। लेकिन डरबन से प्रिटोरिया जाते समय रास्ते में उनकी जो दुर्गति हुई, उसकी तुलना में डरबन की घटना तो कुछ भी नहीं थी। शाम को जब उनकी गाड़ी मैरित्सबर्ग पहुंची तो उनसे कहा गया कि पहले दर्जे का डिब्बा छोड़कर गाड़ी के अन्त में माल के बन्द डिब्बे में चले जाएं। उनके इनकार करने पर उन्हें धक्का देकर पहले दर्जे से बाहर ढकेल दिया गया। ठंड से ठिठुरती हुई रात में वह मैरित्सबर्ग स्टेशन के अंधेरे वेटिंग-रूम में जा बैठे और सारी घटना पर बड़ी देर तक विचार करते रहे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय जिस अपमानजनक परिस्थिति में रहते थे, उसके बारे में उनके मुवक्किल अब्दुल्ला सेठ ने उन्हें कोई चेतावनी नहीं दी थी। वह सोचने लगे, क्या ऐसी दशा में इकरारनामे को रद्द करके भारत लौट जाना उचित होगा या जो भी अपमान सिर पड़े, पीकर रह जाएं और काम पूरा करके लौटें ? अब तक अपनी राय या हकों के लिए वह कभी अड़े नहीं थे। इसके विपरीत, वह स्वभावतः झेंपू और एकान्तप्रिय थे। लेकिन मैरित्सबर्ग के ठंडे अंधियारे वेटिंग-रूम में, जब उनके अन्दर उस रात के अपमान की टीस उठती रही, उनका कायापलट हो गया। उनमें फौलादी दृढ़ता और निश्चय का जन्म हुआ। बाद में इस घटना पर विचार करने पर उन्होंने इसे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक माना। उसी क्षण से उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में व्याप्त असभ्यता और अन्याय के विरुद्ध कमर कस ली और उसे वहां की शासकीय एवं सामाजिक व्यवस्था का अंग मानने से इनकार कर दिया। तर्क से, अनुरोध से, अनुनय-विनय से, वह शासक जाति की न्यायबुद्धि और सोई हुई मानवता को जगाने का बराबर प्रयत्न करते रहे। उन्होंने रंग-भेद और जातीय हेकड़ी के आगे क्षण-भर को भी झुकने से इनकार कर दिया, क्योंकि यह प्रश्न अकेले अपने आत्मसम्मान की रक्षा और उद्धार का नहीं था, समस्त भारतीयों, भारत देश, बल्कि सम्पूर्ण मानव-जाति के गौरव की स्थापना का था।

प्रवासी भारतीयों का मूक और निस्सहाय होकर कष्ट और अपमान सहना, उनकी निरक्षरता एवं नहीं के बराबर अधिकार और प्राप्त अधिकारों के विषय में भी पूर्ण अनभिज्ञता, इन सबका गांधीजी पर यह चमत्कारिक प्रभाव पड़ा कि झिझक और अपनी योग्यता तथा शक्ति में सन्देह की भावना समूल नष्ट हो गयी। हीनता और आत्मग्लानि की जो भावना इंग्लैंड के विद्यार्थी काल में और भारत में वकालत के समय कभी पीछा नहीं छोड़ती थी, अब एकदम गायब हो गई। कहां तो बम्बई की अदालत में जिरह के समय उनके मुंह से बोल भी नहीं फूटा था और यहां प्रिटोरिया में आते ही उन्होंने जो सब से पहला काम किया वह था, वहां के भारतीय निवासियों की "ट्रंसवाल में उनकी सही हालत बताने के लिए" सभा का आयोजन।

अगले बारह महीने गांधीजी उस दीवानी मुकदमे में व्यस्त रहे, जिसके लिए वह प्रिटोरिया आए थे। जून 1894 में वह भारत लौटने के लिये डरबन पहुंचे। वहां उनके कृतज्ञ मुवक्किल दादा अब्दुल्ला ने डरबन की सुहावनी उपनगरी सिडेनहम में उनके सम्मान में एक विदाई-भोज का आयोजन किया। इस भोज में गांधीजी ने संयोगवश 'नेटाल मर्करी' अखबार में यह समाचार पढ़ा कि भारतीय प्रवासियों को मताधिकार से वंचित करने के लिए एक विधेयक नेटाल की विधानसभा में पेश होने वाला है। गांधीजी के मेजबान अब्दुल्ला और भोज में सम्मिलित अन्य भारतीय व्यापारी, उन्हें इस विधेयक के बारे में कुछ भी न बता सके। उन्हें बस इतनी ही अंग्रेजी आती थी कि अपने गोरे ग्राहकों से बातचीत कर सकें। उनमें से शायद ही कोई अखबार पढ़ पाता था और नेटाल विधानसभा की कार्यवाही समझने योग्य अंग्रेजी का ज्ञान तो उनमें से किसी को भी नहीं था। वे नेटाल में व्यापार करने आये थे और राजनीति में उन्हें कोई रुचि नहीं थी। अभी उनकी समझ में यह नहीं आया था कि अन्ततः राजनीति का उनके व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ेगा। गांधीजी ने भोज में सम्मिलित व्यापारियों को बताया कि "यह तो भारतीयों की हस्ती मिटा देने की ओर पहला कदम है।" इस पर भारतीय व्यापारियों ने उनसे आग्रह किया कि वह नेटाल में रुकें और उनकी ओर से संघर्ष करें। गांधीजी ने अपना जाना एक महीने के लिए स्थगित कर दिया।

गांधीजी तुरन्त काम में जुट गये। भारतीयों द्वारा विधेयक-विरोधी आंदोलन चलाने के लिये, विदाई के जलसे में सम्मिलित लोगों की एक राजनीतिक समिति बन गई। गांधीजी ने अपने पहले राजनीतिक आन्दोलन की जो रूपरेखा बनायी, उससे उनकी सहज प्रतिभा का अच्छा परिचय मिलता है। उन्होंने विभि़ जातियों के प्रवासी भारतीयों में एकता की –ढ़ भावना पैदा की। भारतीयों को मताधिकार से वंचित किये जाने का सहीगसही अर्थ और उससे होने वाले परिणाम को, न केवल वहां के भारतीय निवासियों को किन्तु नेटाल की सरकार और संतुलित दृष्टिकोण रखने वाले यूरोपीयों को भी उन्होंने खूब अच्छी तरह समझा दिया। उनके कार्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण अंग था, भारत और इंग्लैंड की सरकारों और जनता का विवेक जाग्रत कर उन्हें अपने आंदोलन के पक्ष में करने के लिए व्यापक प्रचार। इसके लिए उन्होंने विधानमण्डलों में याचिकाएं प्रस्तुत कप; अखबारों में वक्तव्य प्रकाशित कराये; ब्रिटेन, भारत और नेटाल में प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे और सार्वजनिक सभाएं आयोजित कप। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीयों के साथ न्याय किया जाए। इससे जन-मानस आन्दोलित तो हुआ, लेकिन नेटाल विधानमण्डल ने भारतीयों को मताधिकार से वंचित करने का विधेयक फिर भी पारित कर लिया। डरबन में अपने भारतीय मित्रों के आग्रह पर गांधीजी नेटाल में अभी और ठहरने के लिए राजी हो गये और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने के लिए अपना नाम दर्ज करा लिया। सार्वजनिक काम के लिए पैसा लेने को वह किसी तरह राजी न हुए, इसलिए बीस व्यापारी उन्हें वकालत का काम देने को सहमत हुए और प्रतिधारण फीस के रूप में एक वर्ष का तीन सौ पौण्ड अग्रिम देने लगे। गांधीजी का ख्याल था कि इतने में वह डरबन में अपना खर्च आराम से चला सकेंगे।


| | |