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बैरिस्टर के रूप में

1891 में गांधीजी कानून की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये, पर मन में नई चिन्ताएं और सन्देह उभरने लगे। कानून तो पढ़ लिया, पास भी हो गये, मगर वकालत कर भी पाएंगे ? चार अजनबी व्यक्तियों के बीच तो उनसे बोलते नहीं बनता था, भरी अदालत में विरोधी पक्ष के वकील से जिरह और बहस कैसे कर सकेंगे ? बम्बई के सर फीरोजशाह मेहता जैसे महान वकीलों के विषय में वह सुन चुके थे। ऐसे धाकड़ वकीलों के सामने पड़ जाने पर उनकी जो दुर्गति होगी, उसकी कल्पना वह सहज ही कर सकते थे। इस प्रकार जब वह भारत के लिए रवाना हुए तो उनके मन में "घोर निराशा के बीच आशा की एक किरण मात्र विद्यमान थी।"

बम्बई में जहाज से उतरते ही उन्हें एक बड़ा आघात लगा। जब वह इंग्लैंड में थे तभी मां की मृत्यु हो चुकी थी। यह स्वाभाविक ही था कि जिस परिवार ने गांधीजी की शिक्षा पर इतना धन लगाया था, उसकी आशाएं पूरी करने के लिए वह चिन्तित थे। बड़े भाई तो एक साथ धन, नाम और यश तीनों की बड़ी आशाएं लगाए बैठे थे। परन्तु बैरिस्टरी की डिग्री अलादीन का चिराग तो थी नहीं कि आते ही व्यक्ति वकालत में चमक जाता और सोना बरसने लगता। गांधीजी को पता चला कि राजकोट के देशी वकीलों को भारतीय कानून की अधिक जानकारी थी और वे बैरिस्टरों की तुलना में फीस भी कम लेते थे। ऐसी दशा में राजकोट में वकालत करने का अर्थ निश्चय ही अपनी खिल्ली उड़वाना था। इसलिए गांधीजी ने मित्रों की यह राय मान ली कि वह बम्बई जाकर भारतीय कानून का अध्ययन करें और इस बीच जो छोटे-मोटे मुकदमे मिल जाएं, उन्हें वहां की अदालत में लड़ें।

बम्बई का अनुभव उनके राजकोट के अनुभव से बहुत भि़ नहीं था। अत्यधिक प्रतीक्षा के बाद उन्हें पहले मुकदमे में केवल तीस रुपये फीस मिली। लेकिन वह जब गवाह से जिरह करने के लिए उठे तो बुरी तरह घबरा गये। उनकी समझ में न आया कि क्या कहें। अन्ततः हिम्मत हार कर कुर्सी में जा धंसे और मुवक्किल को फीस लौटा दी। जिस वकालत की शिक्षा के लिए विलायत जाकर इतना पैसा खर्च किया, उस पैसे का श्रीगणेश ही अपमानजनक रहा और युवक बैरिस्टर को अपना भविष्य बिल्कुल अंधकारमय दिखाई देने लगा।

उनके संकट का अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह बम्बई के एक हाई स्कूल में पचहत्तर रुपये मासिक पर कुछ घंटों के लिए मास्टरी करने को तैयार हो गये लेकिन उनका आवेदन-पत्र अस्वीकृत हो गया। इस बीच यह जानकर उन्हें कुछ संतोष हुआ कि याचिकाएं और आवेदन-पत्र लिखने में वह बहुत कुशल थे। वह अपना मामूली-सा कारोबार समेट कर बम्बई से राजकोट लौट आये और अर्जीदावे लिख कर तीन सौ रुपये महीना कमाने लगे। वह बैरिस्टरी भी शुरू कर देते, अगर उन्होंने राजकोट के पोलीटिकल एजेण्ट को, जिसकी कचहरी में ही अधिकतर मुकदमे होते थे, नाराज न किया होता। इसलिए जब दक्षिण अफ्रीका से नौकरी का प्रस्ताव आया तो उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। एक दीवानी मुकदमे के सिलसिले में एक साल का इकरारनामा था। आने-जाने के फर्स्ट क्लास के किराये और रहने-खाने के खर्च के अतिरिक्त 105 पौंड पारिश्रमिक मिलने की बात थी। पारिश्रमिक अधिक नहीं था और न यही तय हो पाया था कि वह कानूनी सलाहकार की हैसियत से जा रहे थे या क्लर्क की। दक्षिण अफ्रीका में जन-सेवा और आत्म-विकास के जो अपूर्व अवसर मिलने वाले थे, उनकी तो गांधीजी ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी।

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