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इंग्लैंड में

मोहन ने 1887 में बम्बई विश्व-विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास की। एक वर्ष पहले पिता की मृत्यु हो जाने से परिवार की आर्थिक दशा संतोषजनक न रही थी। घर में पढ़ाई जारी रखने वाला अकेला वही लड़का था। परिवार को उससे बड़ी उम्मीदें थी। इसलिए आगे पढ़ने के लिए उसे भावनगर भेजा गया, जो कालेज की पढ़ाई के लिए सबसे नजदीक का शहर था। लेकिने मोहन के दुर्भाग्य से वहां पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी था और व्याख्यान उसकी समझ में नहीं आते थे। यहां तक कि प्रगति और सफलता की आशा ही नहीं रह गई। इसी बीच परिवार के एक मित्र मावजी दवे ने सुझाव दिया कि मोहन को इंग्लैंड जा कर कानून पढ़ना चाहिए।

विदेश जाने के विचार से मोहन खुशी से नाच उठा। प्रस्ताव के लाभप्रद होने में उसके बड़े भाई को कोई सन्देह न था, पर उन्हें इस बात की चिन्ता हुई कि खर्च के लिए पैसा कहां से आएगा। उसकी मां अपने सबसे छोटे बेटे को विदेश के अज्ञात प्रलोभनों और खतरों के बीच भेजने के लिए तैयार न थी। जिस मोढ़ बनिया जाति के गांधीजी थे, उसने धमकी दी कि यदि विदेश यात्रा के विरुद्ध उसके आदेश का उल्लंघन किया गया तो वह पूरे परिवार को जाति से बहिष्कृत कर देगी। लेकिन मोहन के विदेश जाने के दृढ़ निश्चय से ये सभी बाधाएं दूर हो गई और सितम्बर 1888 में 18-19 साल की उम्र में वह समुदाय जहाज से इंग्लैंड के लिए रवाना हो गया।

राजकोट के देहात से जहाज का एकदम सर्वदेशीय वातावरण मोहन के लिए बड़ा भारी परिवर्तन था। पश्चिमी ढंग के भोजन, यूरोपीय वेश-भूषा और शिष्टाचार अपनाना उसके लिए बड़ी ही कष्टदायक क्रिया थी। जहाज पर तथा लंदन प्रवास के प्रथम कुछ सप्ताहों में मोहन की यह भावना बनी रही कि वह खुद अपने को ही बेवकूफ बना रहा है। भारत छोड़ने से पहले उसने मां से प्रतिज्ञा की थी कि वह मद्य, मांस और नारी की स्पर्श नहीं करेगा। मांस न खाने की प्रतिज्ञा उसके लिए निरन्तर परेशानी का कारण बनी रही। उसके मित्र डरते थे कि खान-पान का परहेज उसके स्वास्थ्य को तो नष्ट कर ही देगा, मोहन वहां के समाज में घुलमिल भी नहीं पाएगा और खासा नक्कू बन कर रह जाएगा। अपने आलोचकों को निरुत्तर करने के लिए और यह सिद्ध करने के लिए कि शाकाहारी भी अपने को नये वातावरण में ढाल सकता है उसने 'अंग्रेजी संस्कृति' की तड़क-भड़क अपनाने का निश्चय किया।

पूर्ण रूप से अंग्रेजी तौर-तरीके अपनाने का निश्चय कर लेने के बाद, उन्होंने इसके लिए न धन की परवाह की, न समय की। जब अंग्रेजियत का मुलम्मा चढ़ाने का फैसला कर ही लिया तो वह बढ़िया से बढ़िया होना चाहिए, कीमत चाहे जो भी देनी पड़े। लंदन के सबसे अच्छे और फैशन में अग्रणी दर्जियों से सूट सिलवाये गए। घड़ी में लगाने के लिए भारत से सोने की दुलड़ी चेन मंगवाई गयी। वक्तृत्व कला, नृत्य और संगीत की विधिवत् शिक्षा विशेषज्ञों से ली जाने लगी।

लेकिन गांधीजी इन प्रयोगों में अपने को पूर्ण स्वच्छंदता और सहज भाव से नहीं लगा सके। आत्मनिरीक्षण की अपनी आदत को वह कभी नहीं छोड़ सके। अंग्रेजी नाच और गाना सीखना उनके लिए आसान काम नहीं था। उन्होंने अनुभव किया कि दर्जी, बजाज और नाचघर उन्हें 'अंग्रेज साहब' तो जरूर बना सकते हैं लेकिन यह साहबियत सिर्फ शहराती और ऊपरी होगी। तीन महीने फैशन की चकाचौंध में भटकने के बाद उनका सहज अन्तर्मुखी मन फिर अपनी खोल में आ बैठा। अंधाधुंध फिजूलखर्ची ने अब अत्यधिक सतर्कतापूर्ण मितव्ययिता का रूप ले लिया। वह एकाएक पैसे का हिसाब रखने लगे। सस्ते कमरे में रहने लगे, नाश्ता खुद बना लेते और बस का किराया बचाने के लिए रोज आठ-दस मील पैदल चलते। इस तरह वह अपना पूरे महीने का खर्च सिर्फ दो पौण्ड में चला लेते थे। परिवार के प्रति आभार और अपने दायित्व को वह बड़ी गंभीरता से अनुभव करने लगे और उन्हें इस बात से खुशी होती कि अब खर्च के लिए भाई से ज्यादा पैसा नहीं मंगवाना पड़ेगा। सादगी ने अब उनके जीवन के बाह्य और आन्तरिक दोनों पक्षों को संतुलित कर दिया था। शुरू के तीन महीनों की फैशनपरस्ती उन लोगों से बचने के लिए रक्षात्मक कवचमात्र थी, जो उन्हें अंग्रेजी समाज में घुलने-मिलने के अयोग्य समझते थे।

निरामिष भोजन, जो पहले उनके लिए परेशानी का कारण था, अब एक महत्वपूर्ण गुण बन गया। हेनरी एस. साल्ट की लिखी पुस्तक 'प्ली फार वेजीटेरियनिज्म' उनके हाथ लगी और इसके तर्क उनके मन को भा गए। अब तक निरामिष भोजन उनके लिए भावना का विषय था। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद यह तर्कसंगत, विीवास और आस्था बन गया। मां के प्रति सम्मानगभावना से अपनाया गया शाकाहार, जो एक असुविधाजनक प्रतिज्ञा थी, अब उनके जीवन का लक्ष्य बन गया और इसने एक ऐसे शारीरिक और मानसिक अनुशासन को जन्म दिया जिससे भविष्य में उनका जीवन ही बदल गया। फिर तो नये उत्साह के साथ वह आहार-विज्ञान पर उपलब्ध हर किताब पढ़ने लगे। उनकी पाकगशास्त्र में रुचि विकसित हुई। मिर्च मसालों में स्वाद जाता रहा और वह इस तर्कसंगत निर्णय पर पहुंचे कि स्वाद का केन्द्र रसना न होकर मन है। स्वाद पर नियंत्रण उस आत्मानुशासन की दिशा में पहला कदम था, जो कई वर्ष बाद पूर्ण इन्द्रिय-निग्रह में अपने चरमबिन्दु पर पहुंचा।

तर्क-सम्मत शाकाहार का तात्कालिक परिणाम तो यह हुआ कि युवा गांधी में एक नए संतुलन का जन्म हुआ और वह संकोच के पाश से मुक्त होकर समाज में रुचि लेने लगे। 'वेजीटेरियन' (शाकाहारी) पत्रिका में नौ लेख लिख कर उन्होंने पत्रकार बनने की दिशा में पहला कदम उठाया। ये लेख मुख्यतः वर्णनात्मक थे। इनमें भारतीयों के भोजन, आदतों, सामाजिक प्रथाओं और त्यौहारों के वर्णन के साथ-साथ यत्र-तत्र विनोद की फुहारें भी थी। यदि इस बात को ध्यान में रख कर विचार किया जाए कि भावनगर कालेज में वह अंग्रेजी व्याख्यानों को समझ नहीं पाते थे, तो इन लेखों को छपने के लिए भेजना निःसंदेह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। वह लंदन की शाकाहारी संस्था की कार्यकारिणी के सदस्य बन गये। बैजवाटर में, जहां वह कुछ समय तक रहे थे, उन्होंने एक शाकाहारी क्लब की स्थापना भी की। उस समय के एक प्रमुख शाकाहारी सर एडविन आर्नल्ड से उनका सम्पर्क हुआ, जो 'लाइट आफ एशिया' (एशिया की ज्योति : बुद्ध चरित) और 'सांग सेलेशियल' (दिव्य संगीत : 'भगवद्गीता' का अनुवाद) नाम की उन दो पुस्तकों के लेखक थे, जिनका गांधीजी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। बुद्ध के जीवन और गीता के संदेश ने उनके जीवन को एक नई चेतना प्रदान की। लंदन के निरामिष जलपान-गृहों और भोजनालयों में उनकी भेंट केवल खान-पान में परहेज की धुन रखने वालों से ही नहीं, कुछ सच्चे धर्मधुरीण व्यक्तियों से भी हुई। इनमें से एक के द्वारा गांधीजी का बाइबिल से पहला परिचय हुआ।

'न्यू टेस्टामेंट', प्रभू यीशु का सुसमाचार और विशेष कर 'सर्मन ऑन दी माउण्ट' (गिरि प्रवचन) ने गांधीजी के हृदय को छू लिया :

"परन्तु मैं तुम से कहता हूं कि बुरे का सामना न करना; परन्तु जो कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे, उसकी ओर तू दूसरा भी फेर दे। और यदि कोई तुझ पर नालिश करके तेरा कुरता लेना चाहे, तो उसे दोहर भी ले लेने दे।"

यह पढ़कर उन्हें गुजराती कवि श्यामल भट्ट का निम्न छप्पय याद आ गया, जिसे वह बचपन में गुनगुनाया करते थे :
पाणी आपने पाय भलुं भोजन तो दीजे;
आवी नमाये शीश, दण्डवत कोडे कीजे।
आपण घासे दाम, काम महोरोनूं करीए;
आप उगारे प्राण, ते तणा दुखमां मरीए।
गुण केडे तो गुण दशगणो, मन, वाचा, कर्मे करी।
अवगुण केडे जे गुण करे, ते जगमां जीत्यो सही।।

बाइबिल, बुद्ध और श्यामल भट्ट की शिक्षाएं गांधीजी के हृदय में मिल कर एक हो गई। घृणा के बदले प्रेम और बुराई के बदले भलाई करने की बात ने उन्हें मुग्ध कर दिया। यद्यपि इसका मर्म उन्होंने अभी पूरी तरह नहीं समझा था, लेकिन उनके अति ग्रहणशील मन को ये शिक्षाएं आन्दोलित करने लगी थी।


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