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नगीनदास संघवी

 

81. ‘कान की एक बूटी’

गाँधीजी हरिजन – फंड (चंदा) के लिए भारत – भर में घूम रहे थे । देहरादून में आसपास के गाँवों से दर्शन करने आई स्त्रियों की सभा में उन्होंने एक नया खेल चलाया । चंदा इकट्ठा करने के लिए वे स्वयं सभा में उतरे और अपनी अंजलि सामने किये हुए चलने लगे । प्रसन्नता से उमगी गरीब स्त्रियाँ उनकी अंजलि में पाई, पैसा, आना, अधेला, रुपया, नोट और गहने डालने लगीं । अंजलि भर जाती तो महात्माजी हथेलियाँ अलग कर सब कुछ नीचे गिर जाने देते और ‘मेरा कर-पात्र खाली है, भर दीजिए’ कहते जाते । आध घंटे तक यह खेल चला । सभा विसर्जित हुई ।               नीचे बिखरे सिक्के आदि उठाकर एकत्रित करने का काम महावीर त्यागी को सौंप कर महात्माजी चले गये । छुट्टे पैसे, नोट और गहने इकट्ठा करके, उनकी सूची बनाकर महावीरजी खुश होकर घर पहुँचे तो गाँधीजी बहुत गुस्से मैं थे, ‘काम हाथ में लो तो कुछ जवाबदारी समझते हो या नहीं ?’ – बेचारे महावीर तो मुँह बाए देखते रह गये । 

‘सभा में नीचे बिखरा हुआ सब कुछ इकट्ठा क्यों नहीं किया ? महावीर ने डरते – डरते कहाः ‘जी, सभी चीजें उठा ली गई हैं ।’ ‘नहीं ली गई हैं ।’ – गाँधीजी ने कहा  । ‘किसने कहा ?’ – त्यागी के इस सवाल के जवाब में गाँधीजी ने एक छोटी-सी कान की बूटी ऊँची करके दिखाते हुए कहा, ‘यह बूटी कहती है, उसकी जोडी़ नहीं है । बूटी देनेवाली महिला एक बूटी तो देगी नहीं, इसकी जोडी़ वहाँ अवश्य होनी चाहिए । तुम्हें मिली नहीं, इसका अर्थ यह है कि तुमने पूरी छानबीन नहीं की ।’  

महावीर त्यागी अपने संस्मरण में लिखते हैं कि ‘रात में किटसन लाइट जलाकर हम चले । समस्त तिरपालों को उलट-पलट कर ढूँढा । भगवान की कृपा कि वह बूटी तो मिली, पर साथ में फुटकर और मुडे़-तुडे़ नोट मिलाकर लगभग दो सौ रुपये की रकम इकट्ठी हो गई । वह सब बापू के पास भेजा। परन्तु काफी दिनों तक तो उन्हें मुँह दिखाने में भी शर्म आती थी ।’