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‘अमृतलाल बेगड़’

 

80. ‘अहिंसा को युद्ध के मैदान में लानेवाले’

 किसी देश का इतिहास अधिकांशतः वहाँ के रोजाओं का इतिहास होता है । राजा एक दूसरे पर आक्रमण करते रहते इसलिए युद्ध चलते ही रहते थे । इस रूप में इतिहास मुख्यतः हिंसा का इतिहास होता है ।

परन्तु यदि मानवजाति मात्र हिंसा में ही मशगूल रही होती तो दुनिया कब की नष्ट हो गई होती । दुनिया बची हुई है इसका कारण है कि हिंसा के साथ-साथ अहिंसा का भी इतिहास है । अहिंसा के उदभव की बात करनी हो तो कृष्ण से ही करनी चाहिए । महाभारत के युद्ध को टालने की उन्होंने भरसक कोशिश की, पाण्डवों के दूत बनकर कौरव सभा में गये, परन्तु दुर्योधन के हठाग्रह के कारण युद्ध टल न सका । अपनी विशाल सेना कौरवों को सौंपी और स्वयं पाण्डवों के साथ रहे परन्तु शर्त यह रखी कि, मैं शस्त्र धारण नहीं करूँगा ।

आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व कृष्ण ने इस कथन द्वारा संसार को एक महत्त्वपूर्ण संदेश प्रदान किया – हिंसा भले ही अनिवार्य हो, परन्तु श्रेष्ठ तो अहिंसा ही है । महाभारत का युद्ध अनिवार्य बन गया है । एक आवश्यक अनिष्ट के रूप में इसे स्वीकारे बिना छुटकारा नहीं है । लेकिन हिंसा किसी के हित में नहीं है; इसीलिए इस हिंसा में मैं तो शामिल नहीं रहूँगा ।

युद्ध के अंत में पाण्डवों की विजय तो होती है, परन्तु भीषण मानव-संहार को देख युधिष्ठिर दो बार कहते हैं कि यह विजय पराजय जैसी है । युधिष्ठिर के मुख से इन शब्दों को व्यक्त करवा कर व्यास ने हिंसा की निरर्थकता ही दर्शाई है ।

कृष्ण के बहुत वर्षों बाद आये बुद्ध और महावीर दोनों समकालीन । इन्होंने अपने स्थापित बौद्ध तथा जैन धर्म में अहिंसा को ही प्रतिष्ठित किया । कलिंग युद्ध में हुए नर-संहार को देख अशोक का हिंसा से विश्वास उठ गया उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । अहिंसा जैन धर्म को तो प्राण है ।  हजारों साधू-संतो ने भी अहिंसा की ही महिमा सिद्ध की है ।

अंत मे आए – गाँधीजी के साथ अहिंसा ने चौकडी़ भरी । जब तक गाँधी नहीं आये थे तब तक अहिंसा व्यक्तिगत मोक्ष प्राप्त करने के लिए थी। गाँधी ने कहा कि सत्य और अहिंसा मात्र व्यक्तिगत जीवन में अभीष्ट नहीं है बल्कि समूह में, सामूहिक लडा़ई में भी यह उतनी ही आवश्यक है । सत्य, अहिंसा का उपयोग शस्त्र की भाँति भी हो सकता है। हिंसक हथियारों से यह अधिक शक्तिशाली है । उन्होंने इसे कोटि-जन-व्यापी आंदोलन का रूप दिया, इसे युद्ध के मैदान में उतारा तथा इसका उपयोग एक विशाल देश की आजादी प्राप्त करने के लिए किया ।

हम फिर से कुरुक्षेत्र चलें। जिनके नेतृत्व में पाण्डव युद्ध कर रहे थे, उन कृष्ण ने शस्त्र धारण नहीं किया, सत्य है, परन्तु समस्त पाण्डवों ने तो शस्त्र धारण किया ही था । मान लीजिए कि कृष्ण ने कहा होता, “मेरे हाथों में शस्त्र नहीं है । अर्जुन और भीम के हाथों में भी शस्त्र नहीं है। हमारी समस्त सेना निःशस्त्र है । पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य चलाइए बाण। हम यहाँ मारने नहीं, मरने आये हैं । हम आपके अन्याय के समक्ष नहीं झुकेंगे । पूरी ताकत से उसका विरोध करेंगे। पर विरोध हम हिंसा से नहीं, अहिंसा से करेंगे । शस्त्र उठाना तो दूर की बात है, आपके लिए हमारे मन में प्रेम ही है और हम आपको प्रेम से जीतेंगे ।’

कृष्ण ने ऐसा कहा नहीं था, परन्तु गाँधी ने कहा, कहा ही नहीं, करके दिखाया ।

दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से उन्होंने कहा, “हमें गुलाम बनाने का आपको कोई अधिकार नहीं है । आपके इस अन्याय का हम विरोध करेंगे – परन्तु हिंसा से नहीं, सत्य और अहिंसा से । आप खुशी से गोली चलाइए, लाठीचार्ज कीजिए, अश्रुगैस छोड़िए और जेल में डाल दीजिए । हम आपसे एक भी कटु शब्द नहीं कहेंगे । हमारे मन में आपके लिए गुस्सा, चिढ़ नफरत नहीं है, सिर्फ प्रेम ही होगा ।”

संसार में ऐसा कभी नहीं हुआ था। गाँधी ने अहिंसा का ‘राष्ट्रीयकरण’ किया । उन्होंने पहली बार सत्य और अहिंसा का व्यापक रूप से सफलतापूर्वक प्रयोग किया । आम जनता का पहली बार अहिंसा के साथ गहरा संबंध जुडा़ । अहिंसा द्वारा इस गुलाम देश को आजाद करवा कर गाँधी ने शूरवीरता की नयी परंपरा कायम की ।

जैसे हिंसा ने प्रगति की है, वैसे ही अहिंसा ने भी प्रगति की है । यह व्यक्तिगत अहिंसा से आगे बढ़कर सामूहिक अहिंसा तक पहुँची है । समस्त मानवजाति के लिए यह सुखद संवाद है ।