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चंद्रशेखर प्रा. शुक्ल

 

82. ‘गरीबी को भी पीछे छोड़ने वाली ।’

आलस्य हिंद का बडा़ और पुराना रोग है । गरीबी भी बहुत बडी़ व्याधि है; परंतु गरीबी का मूल महत्त्वपूर्ण कारण आलस्य है । हिंद की गरीबी के एक इलाज के रूप में गाँधीजी ने चरखा और खादी को सामने रखा । इसका प्रचार करते हुए 1924-25 की यात्राओं में, जनमानस को जो अनुभव हुआ, उसके आधार पर उन्होंने कहा कि हमारी जनता में आलस्य गरीबी से भी आगे निकल जाने वाला है ।

आलस्य करके शरीर चुपचाप पडा़ रहे तो भी मन चुप नहीं बैठता । निरुद्यमी व्यक्ति का मन बुरे विचारों से जुड़ता है और अपने साथ-साथ दूसरों का भी सत्यानाश करता है । इसी से यह कहावत बनी है न ‘बेकार बैठा विनाश करे’ । अंग्रेजी में भी कहावत है कि ‘खाली दिमाग शैतान का कारखाना है ।’ दुनिया में घटनेवाले अनेक अपराध और मारपीट के पीछे बैठे-ठाले लोगों का हाथ होता है, यह विचारणीय है ।

प्राचीन रोम का साम्राज्य दूर देशों तक फैला और वहाँ से खिराज के रूप में गाड़ियाँ भर-भर कर आनेवाला अनाज, रोम की प्रजा को मुफ्त में बाँट दिया जाता था । जो लोग पहले खेतों में परिश्रम करते हुए जोरावर बने हुए थे, मुफ्त का अनाज पाकर वे निष्क्रिय हो गये । रोम के इसी वर्ग में मस्ती-धमाल शुरू हो गई । मेहनत छोड़ने से प्रजा विलासी और दुर्बल बनी । रोम के पतन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही । जंगली परन्तु बलवान लोगों ने उत्तर से आकर रोम को जीत लिया ।

हमारे देश में भी मध्ययुग के प्रारम्भ में वैभव, विलास और आलस्य की वृद्धि हुई, जिसके कारण हम युद्ध हारे और पराधीन हुए । बिना मेहनत किये, बैठे-बैठे खाना मिले – यह एक व्यक्ति और समस्त जनता, दोनों के लिए शाप के समान है । समाज, देश और जीवन की नवीन रचना अगर करनी है तो उनके लिए अविश्रांत उद्यम आवश्यक है । जगत के समस्त महापुरुषों में यदि कोई समान गुण है तो वह अविरत परिश्रम का ही है ।