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मनुबहन गाँधी

 

69. ‘(रेल के डिब्बे के) दो विभाग का परिग्रह’

नोआखली और बिहार की आग में कूदने के पश्चात् 30 मार्च 1947 को बापू का लार्ड माउण्टबेटन से भेंट करने जाना तय हुआ । वायसराय तो चाहते थे कि बापू विमानयात्रा करके उन तक पहुँचें परन्तु बापू ने यह कह कर इन्कार किया कि ‘जिस वाहन में करोडो़ गरीब यात्रा नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठ सकता हूँ ?’ तथा ‘ट्रेन में भी मैं अपना काम अच्छी तरह कर लेता हूँ, अतः मैं रेलगाडी़ से ही आऊँगा।’ ऐसा निश्चय कर लिया ।

असह्य गर्मी थी। चौबीस घंटे का लंबा सफर था । उन्होंने मुझे बुलाकर कहा, ‘कम से कम सामान रखना और छोटे-से-छोटा तीसरे वर्ग का डिब्बा (कम्पार्टमेंट) चुनना ।’

मैंने सामान तो कम से कम लिया । परन्तु हर स्टेशन पर बापू के दर्शनार्थियों की इतनी भीड़ जुटेगी कि उन्हें घडी़ भर आराम नहीं मिलेगा – यह सोचकर मैंने दो विभाग वाला डिब्बा पसंद किया । एक में सामान रखवाया और दूसरा बापू के बैठने, सोने के लिए रखा ।

पटना से दिल्ली के लिए ट्रेन सुबह 9.30 बजे रवाना होती है । गरमी के मौसम में बापू दोपहर का 10 बजे लेते थे । मैंने दूसरे हिस्से में जाकर सामान खोला और बापू के लिए खाना तैयार करने लगी । कुछ देर बाद बापू वाले हिस्से में आई । तो बापू लिखने में रत थे । मुझसे पूछा, ‘कहाँ थी ?’ मैंने कहा, ‘यही, भोजन तैयार कर रही थी ।’

उन्होंने मुझे खिड़की से बाहर नजर डालने के लिए कहा । मैंने बाहर देखा तो लोग लटक रहे थे । मुझे मीठी झिड़की मिलीः ‘इस दूसरे हिस्से के लिए तुमने कहा था ?’

मैं बोलीः ‘हाँ बापू ! मैं यहीं पर सब काम-काज करूँ-स्टोव पर दूध गर्म करूँ, बर्तन साफ करूँ तो इससे आपको तकलीफ होगी – यह सोचकर मैंने दो विभागवाला डिब्बा लिया ।’

‘कैसी लचर सफाई दे रही है ! अंधा प्रेम इसी का नाम है । तुझे मालूम है कि मुझे तकलीफ न हो इसलिए हवाईजहाज के उपरांत विशेष ट्रेन के लिए भी कहा गया । एक स्पेशल ट्रेन के कारण कितनी गाड़ियाँ रोक दी जाती हैं और कितने हजारों का खर्च पड़ जाता है ? यह मुझे अच्छा नहीं लगता । मैं जानता हूँ तूने यह सब मेरे प्रति अत्यन्त प्रेम के कारण किया है । परन्तु मैं तुझे ऊँचाई की ओर ले जाना चाहता हूँ, नीचे की ओर नहीं – यह तूझे समझना चाहिए । यदि समझी हो, तो मेरे कहने पर जो तेरी आँखों से पानी गिर रहा है वह नहीं गिरना चाहिए । अब इसका प्रायश्चित्त यही है कि तू सारा सामान इधर खिसका ले और अगले स्टेशन पर स्टेशन-मास्टर को मेरे पास बुलाना ।’

मैं थरथर काँप रही थी । सामान तो खिसकाया पर बापू की चिंता हो रही थी कि अब कैसे होगा लिखना, पढ़ना, मिट्टी लेना, कातना और मुझे पढा़ना आदि सभी काम ? जितना घर बैठे करते हैं उतना ही ट्रेन के सफर में भी जारी रहता है ।

स्टेशन आया । स्टेशन-मास्टर को बुलवाया । बापू ने उसे मेरा पराक्रम सुनाया, ‘यह मेरी पौत्री है, पर बहुत भोलीभाली है । कदाचित् अभी तक मुझे समझ नहीं सकी है, इसीलिए दो विभाग का डिब्बा चुना । इसमें इसका दोष भी नहीं है, दोष मेरा ही है । मेरी शिक्षा में कमी रह गई है ना ? अब मुझे और इसे, दोनों को प्रायश्चित्त करना होगा । दूसरा हिस्सा खाली कर दिया है, इसका उपयोग आप उन यात्रियों के लिए कर लीजिए जो बाहर लटक रहे हैं तो मेरा दुख कुछ हलका होगा ।’

स्टेशन-मास्टर ने बडी़ नम्रता से आग्रह किया पर बापू कहाँ माननेवाले थे । स्टेशन-मास्टर ने यहाँ तक कहा कि ‘इन लोगों के लिए मैं दूसरा डिब्बा जुडवा देता हूँ ।’

बापू बोलेः ‘दूसरा डिब्बा तो जोड़ना ही चाहिए, पर इस हिस्से का भी उपयोग कर लीजिए । मिल रहा है इसलिए आवश्यकता के बिना अधिक लेने में हिंसा है । प्राप्त सुविधा का दुरुपयोग करवा कर आप इस लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं ?’

बेचारा स्टेशन-मास्टर खिसिया गया और उसे अंत में बापू का कहा मानना पडा़ ।