| | |

मनुबहन गाँधी

 

68. ‘कहने की अपेक्षा करना अच्छा’

बापू सदैव स्वच्छता के प्रति विशेष आग्रह रखते थे । अस्वच्छता के लिए बार-बार सामनेवाले को टोकने की अपेक्षा स्वयं कार्य करके दूसरों को स्वच्छता का पाठ पढा़ते थे ।

नोआखली में पगडंडियाँ बहुत छोटी थीं । कोई – कोई रास्ता तो इतना संकरा होता कि बापू अकेले ही पगडंडी पर चल सकते थे और मुझे पीछे-पीछे चलना पड़ता । इस कारण उन्हें मेरा सहारा नहीं मिलता तो दूसरी ओर सहारे के लिए लाठी रखनी पड़ती ।

इधर-उधर गंदगी फैली हो, यह बापू को बहुत अखरता । ऐसे गंदे रास्ते पर उन्हें नंगे पैर चलना पड़ता । चारों ओर फैल मल, थूक, कचरे आदि को आस-पास से पत्ते उठाकर जब बापू स्वयं साफ करने लग गये, तो मैं कुछ देर तक स्तंभित रह गई । मैंने गुस्से में बापू से कहाः ‘बापू, आप मुझे क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं ? मैं यही आपके पीछे-पीछे हूँ, फिर भी मुझे कहने के बदले आपने खुद क्यों साफ किया ?’

इसके उत्तर में बापू हँसते हुए बोले, ‘तुझे क्या पता कि मुझे ऐसे काम करने में कितना आनन्द आता है ? किसी से कहने के बदले मैं स्वयं कर दूँ तो मेरी तकलीफ कितनी कम हो जाए ।’ मैंने कहा, ‘परन्तु इस गाँव के लोग देख रहे हैं ।’ बापू बोले, ‘तू देखना, कल से मुझे ऐसे गंदे रास्ते साफ नहीं करने पडे़गे । क्योंकि लोगों को इससे यह सबक मिलेगा कि यह तुच्छ काम नहीं है ।’

मैं बोली, ‘मान लीजिए कि सिर्फ कल तक के लिए वे साफ करें, फिर वैसी ही गंदगी बनी रहे तो आप क्या करेंगे ?’ उन्होंने उल्टे मुझे ही पकडा़ बोलेः मैं तुझे देखने के लिए भेजूँगा और फिर से रास्ता गंदा हुआ तो साफ करने आऊँगा ।’

सचमुच ऐसा ही हुआ । दूसरे दिन जब मैं देखने गई तो रास्ता वैसा ही गंदा था । परन्तु बापू को कहने न जाकर, मैंने स्वयं साफ किया और लौटी, बापू से कहा, ‘मैं रास्ता साफ कर आई । मेरे साथ गाँव के लोग भी थे और आज तो उन्होंने वचन दिया है कि कल से आप मत आइए, हम स्वयं ही साफ करेंगे ।’

बापू बोले, ‘तूने मेरा पुण्य ले लिया । यह रास्ता मुझे ही साफ करना चाहिए था । पर ठीक है । अब दो काम हो गयेः एक तो स्वच्छता बनी रहेगी और दूसरे लोग अपना दिया वचन पालेंगे तो सत्यता सीखेंगे ।’ और वह रास्ता सदा के लिए साफ रहा।