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केशुभाई भावसार

 

67. ‘यह समन्वय’

1941 में कांग्रेस कार्यकारिणी की एक बैठक वर्धा में हुई । मैं, उस समय पास के सेवाग्राम में खादी विद्यालय में पढा़ई कर रहा था, इसलिए मुझे जानने-देखने का अवसर मिल गया ।

वहाँ मैंने देखा कि कांग्रेस प्रमुख श्री अबुल कलाम आजाद मंच की बैठक पर लेटे-लेटे सिगरेट के कश खींच रहे थे । पास ही बैठे हुए गाँधीजी एकाग्रता से चरखा चला रहे थे । इस दृश्य को देखते ही मेरे दिल में गहरा आघात लगा । ऐसी सभा में लेटे हुए कांग्रेस प्रमुख के सिगरेट पीने में मुझे प्रजा का अपमान लगा । गाँधीजी लोगों को सादा, संयमी और मेहनती बनाकर सत्य और अहिंसा की सीख देने का प्रयास कर रहे थे । उनका एक अदना सैनिक बनने की आकांक्षा मेरे जैसे अनेक लोगों में थी । इस दृश्य से मेरे दिल में फाँस गड़ गई, परन्तु उस समय मैं गम खाकर रह गया ।

बाद में, 1942 के आंदोलन में, जेल गया । वहाँ मौलाना आजाद की ‘कुरान’ पर लिखी पुस्तक पढ़ी, तब उनकी विद्वत्ता और उच्च भावना के समक्ष मेरा मस्तक झुक गया । मुझे यह भी लगा कि ऐसे महान प्रतिभावाले पुरुष निवर्यसनी और सादा जीवन जीते हों तो कितना अच्छा !

दूसरी ओर निवर्यसनी और श्रमजीवी लोगों को देखता हूँ, तब मेरे मन में यह भाव भी जगता है कि इनमें मौलाना आजाद जैसी निडरता, देश के लिए कुर्बान होने और समानता की भावना होती तो कितना अच्छा होता । देश के लिए कष्ट सहन करने में उदार और अनुदार दृष्टिवाले लाखों लोग भले ही सादे और संयमी हों पर क्या उससे गाँधीजी का स्वप्न साकार होगा ?

आज विचार करने पर प्रतीत होता है कि दोनों प्रकार के लोगों के समन्वय के लिए गाँधीजी अत्यधिक कोशिश करते रहे । अबुल-कलाम आजाद के व्यसन को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया, वैसे ही हमारे जैसे संयमी जीवन जीनेवाले, परंतु एक-दूसरे को जरा भी सहन न कर सकने वाले घमण्डी कार्यकर्ताओं को भी निभाया । इन दोनों प्रकार के लोगों का समन्वय अभी हमें करना है । जीवन सादा, स्वावलंबी और निवर्यसनी तो हो ही, पर साथ-साथ निडरता, उदारता और करोडो़ दुखी, अज्ञान लोगों के लिए स्वयं को खपा देने की भावना – यह सब समग्र रूप से जब हमारे जीवन में विकसित होंगे तभी हम सच्ची आजादी पायेंगे ।