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क्लेयर शेरिडन

 

49. ‘भव्य सादगी’

एक छोटे पर महान, ऐसे महात्मा का बहुत नजदीक से निरीक्षण करने का सदभाग्य मुझे पाप्त हुआ था । मेरी सहेली सरोजिनी नायडू के द्वारा मैं उनका शिल्प बनाने की अनुमति प्राप्त कर पायी थी ।

यह कार्य आसान नहीं था । वे शिल्प बनवाने के लिए विशेष रूप से बैठें, यह तो संभव नहीं था । इसका कारण या तो विनम्रता या काम का अतिशय बोझ अथवा कला के प्रति उदासीनता हो सकती है ।

इसी बात पर मुझे लोकनायक लेनिन याद आए । 1920 में मास्को में क्रेमलीन के उनके कार्यालय में मुझे प्रवेश मिला, तब उन्होंने ऐसी ही शर्तें रखी थीं । इन दो लोकनेताओं में अदभुत साम्य है । दोनों के बीच हिंसा-अहिंसा के बारे में मतभेद अवश्य है, फिर भी दोनों अत्यन्त उत्साही आदर्शवादी हैं ।

मैं महात्माजी के सम्मुख पहली बार गई तब उन्होंने कहा (जैसा लेनिन ने भी कहा था)

‘विशेष रूप से शिल्प बनवाने के लिए मैं आपके सामने बैठ नहीं सकता। मैं अपना कार्य करता रहूँगा । ऐसी स्थिति में आपसे जो कुछ हो सके वह कीजिए ।’

गाँधीजी जमीन पर बैठकर चरखा चलाते रहे । लेनिन अपने ओफिस की कुर्सी पर बैठे-बैठे पुस्तक पढ़ते रहे ।

दोनों प्रसंगों में, अंत में हमारी परस्पर मित्रता हो गयी थी । एक दिन गाँधीजी ने लेनिन के जैसे शब्दों में तथा उनके जैसे ही कटाक्षभरी स्मित के साथ कहाः

‘अच्छा, तो आप विस्टन चर्चिल की मौसेरी बहन हैं ?’

वही पुराना खेलः विंस्टन की एक संबंधी उनके कट्टर शत्रु के साथ मित्रता करे ! गाँधीजी ने आगे कहाः

“आपको ज्ञात है कि आपके भाई मुझसे मिलना तक नहीं चाहते ? पर आपसे मिलकर मुझे कितना आनन्द हुआ है यह आप उनसे कहेंगी या नहीं ?”

लेनिन ने भी लगभग इसी प्रकार कहा थाः ‘आप अपने भाई से कहियेगा....आदि ।’

इन दोनों पुरुषों ने जगत को अमर संदेश प्रदान किया है । यह संदेश ऐसा है जो दीन-दुखी और दलितों को आशा और उत्साह प्रदान करता है । इन संदेशों से रंक मनुष्यों ने अपना सिर ऊँचा करना तथा जगत में अपना स्थान समझना सीखा है । जिन्होंने लेनिन की लडा़ई में प्राण गँवाए वे वीर कहाए; परंतु जिन्होंने गाँधीजी के नाम पर प्राण अर्पित किए वे वीर और शहीद दोनों प्रतीत होते हैं ।

अमेरिका के शिल्पकार जो डेविडस ने भी गाँधीजी की एक प्रतिमा (Bust) गढी़ थी । उनसे बात करने का अवसर मुझे मिला था । जो डेविडस ने अपने समय के बहुत से अग्रगण्य पुरुषों के शिल्प बनाने हैं । एक बात में हम दोनों की सम्मति रही कि इन लोगों से मिलकर हममें निराशा उपजी थी । इन सबके साथ सुरक्षा दल के घेरे न हों, उनके द्वारा हथियाये गये महलों में उन्हें न बैठाया गया हो तो उनमें से एक भी व्यक्ति की छाप हमारे मन पर न पडे़ । परन्तु गाँधीजी इन सबसे अलग उभरते हैं । छोटे-से, खुले पैर और खादी से ढके शरीरवाले इस पुरुष की भव्य सादगी मन पर गहरा प्रभाव डालती है ।