| | |

शंकरलाल बैंकर

 

44. ‘विश्वामित्र ऐसा कैसे कर सकते हैं ?’

जेल में जो समय मिले, उसका पूरा-पूरा उपयोग करने का विचार गाँधीजी को आता था । बाहर रहने पर सर्वजनिक कार्यों की अधिकता के कारण कुछ अन्य करने का अवकाश ही नहीं होता था । परन्तु जेल में तो ऐसी स्थिति होती कि अन्य सब कुछ ठीक तरह से हो सके । इसलिए उन्होंने विचारपूर्वक व्यवस्थित कार्यक्रम निश्चित किया था । सर्वाधिक महत्त्व तो वे चरखे को ही देते थे । लिखने – पढ़ने का काम भी बहुत महत्त्वपूर्ण था । रोज के लगभग चार-घंटे तो इसमें ही बीतते थे ।

पढ़ने के संदर्भ में भी, उन्होंने तय कर रखा था कि किन-किन पुस्तकों को पढा़ना है, उसी के अनुसार नियमित रूप से पढ़ते थे । गुजराती किताबों में ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘भागवत’, तिलक महाराज की ‘गीता’, ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ आदि मुख्य थे । पढ़ने के साथ-साथ लेखन-कार्य भी चलता रहता । ‘दक्षिण अफ्रिका के सत्याग्रह का इतिहास’, ‘बाल-पोथी’ आदि जेल में ही लिख गये थे ।

गाँधीजी ने ‘ज्ञानेश्वरी’ गुजराती में पढी़, उन्हें वह बहुत पसंद आई । इसलिए मुझसे बोले, ‘आपको यह पुस्तक पढ़ने के लिए ललचा सकता हूँ ।’ उस समय तक मेरी रुचि आध्यात्मिक विषयों की ओर नहीं हुई थी, अतः मैंने कहा, ‘आप कह रहे हैं तो लगता है कि पढ़ना चाहिए, पर असल में वृत्ति नहीं होती ।’ वे मेरा मन समझ गए और इस बारे में आग्रह नहीं किया । फिर काफी समय के पश्चात् उस पुस्तक की ओर ध्यान गया और मैंने पढा़ । तब बहुत पश्चात्ताप हुआ कि वह किताब जेल में क्यों नहीं पढी़ । ईश्वर की कृपा होने पर ही ऐसी किताब पढ़ने का अवसर मिलता है और पढ़ने में रुचि भी होती है ।

गाँधीजी लोकमान्य तिलक की ‘गीता’ पढ़ रहे थे । तभी एक सुबह मुझसे कहने लगे, ‘तीन दिन से मेरा मन बहुत दुखी हो रहा है ।’

मैंने पूछा, ‘किस वजह से ?’

उन्होंने कहा, ‘मैं लोकमान्य तिलक की ‘गीता’ पढ़ रहा हूँ । उसमें उन्होंने आपदधर्म के बारे में लिखा है और इस पर विश्वामित्र का दृष्टांत प्रस्तुत किया है। भीषण अकाल पडा़ था । कहीं अनाज नहीं मिल रहा था और विश्वामित्र को भयंकर भूख लगी थी । वे एक चांडाल के यहाँ गए और मृत कुत्ते का मांस खाने बैठ गये । चांडाल ने कहा, ‘आप ब्राह्मण और मैं चांडाल । यह मांस भी मृत कुत्ते का है । आप यह कैसे खा रहे हैं ? विश्वामित्र ने उसे उत्तर दिया कि ‘अभी यह सब बातें मत करो । यह तो आपदधर्म । प्राण बचाने का इसके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है ।’

इतना कहकर गाँधीजी जरा ठिठके, फिर बोले, ‘हिंन्दु धर्म ऐसा नहीं हो सकता । विश्वामित्र प्राण छोड़ देंगे, पर ऐसा क्यों करेंगे ? मेरे मन से यह बात हटती ही नहीं और पारावार दुख हो रहा है ।’

इस बारे में वे इतने भाव-विवश हो गए कि दो-तीन दिन तक उसी का विचार करते रहे । मुझे उनके विचार समझ में नहीं आये । मुझे लगा कि उस युग में जो हुआ सो हुआ, भला इसका दुख करने का क्या अर्थ है ?