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रामनारायण वि. पाठक

 

41. ‘विरोधी शक्तियों का समन्वय’

जीवन का एक भी क्षेत्र नहीं, एक भी ऐसा प्रश्न नहीं, जिसमें गाँधीजी ने कुछ न कुछ न किया हो । जैसे सूर्य उगने पर, खुले में तो उजाला होता ही है परन्तु बंध दरवाजों में भी प्रकाश होता है, दरारों में भी उजाला पहुँचता है वैसे ही उनके द्वारा प्रेरित चैतन्य, समाज के अंधेरे से अंधेरे भाग में भी पहुँचा है । उन्होंने मात्र प्रश्नों पर विचार नहीं किया, वरन् जहाँ प्रश्न उठते ही नहीं थे वहाँ भी उन्हें उठाया है । उनमें अनेक विरोधी शक्तियों का समन्वय हुआ है ।

क्रांतिकारी होने पर भी वे प्राचीनता के प्रति आदरभाव रखते हैं । मृदु हैं पर हठीले हैं । आग्रही होने पर भी छूट रखनेवाले हैं । प्रेमल होते हुए भी भीषण हैं । उनकी भीषणता के कुछ वाक्य तो ऐसे हैं जो कभी भूले नहीं जा सकते । उन्होंने एक बार कहा था कि समग्र देश ऐसी पामर अवस्था में पडा़ रहे, इसकी अपेक्षा मैं चाहूँगा कि उसका पृथ्वी से नाश हो जाए । एक अन्य प्रसंग में कहा कि स्त्री, पुरुषों की विषयवृत्ति का साधनभूत बने, इसकी अपेक्षा मैं यह अधिक पसंद करूँगा कि मानवजाति की संतति उत्पन्न होना बंद हो जाये । समय आये और भारत में बडे़ पैमाने पर सत्याग्रह शुरू हो, और हजारों जीवों को अकथ दुख में और मृत्युमुख में स्वाहा होते देखें तो भी उनकी आँखों में आँसू न आये – इसकी मैं कल्पना कर सकता हूँ । वे मुझे मनुष्य की अपेक्षा गूढ़ प्राकृतिक बल जैसे प्रतीत होते हैं । प्रकृति, एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म, मात्र सूक्ष्मदर्शक यंत्र से दिखे ऐसे रेशों या जंतु को भी, रस देकर पोषण करती है और यही प्रकृति, हमारे लिए अगम्य किसी हेतु के लिए दरिया को उछालती है, पर्वत तोड़ती है, देश के देश उध्वस्त कर देती है ।

गाँधीजी उसी प्रकार एक जंतु की तथा पामर मनुष्य की सेवा करने लगते और हजारों का नाश भी करते । प्रकृति एक नमूना सिद्ध करने के लिए असंख्य व्यक्तियों को क्रूर तरीके से मार देती है, तो गाँधीजी एक सत्य के लिए, चाहे जितना त्याग करने के लिए तैयार हैं । पूर्णतः खुले और निखालिस होने पर भी उनकी आत्मगहनता से स्फुरित बल कुदरत जैसा ही गूढ़ है, अकलनीय है, असीम है, अप्रतिरुद्ध है ।