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काका कालेलकर

 

36. ‘बिदाई

चाहे जितने उत्साह से कोई जेल गया हो पर जब जेल की अवधि समाप्त होती है और छूटने के करीब आते हैं तो वह प्रसन्न होता है । लेकिन उस समय मेरी स्थिति बिल्कुल विपरीत थी । कैदी होने के कारण अपनी मर्जी के अनुसार दीवार के पार नहीं जाया जा सकता, यह सही है । परन्तु बापू के साथ रहने का मौका मिलने के बाद बाहर जाने की इच्छा ही नहीं हो रही थी । जेल के नियम और बंधन चाहे जितने कठोर हों पर गाँधीजी के साथ रहने का लाभ मिलने के कारण उस बंधनो की ओर ध्यान ही नहीं जाता था । उल्टे ऐसा प्रतीत होता था कि साढे़ पाँच महीने घर में रहने का सौभाग्य मिला था और अब घर से बाहर निकाल दिया जायेगा । इसलिए मैं दिन गिनता था, किसी आशा के साथ नहीं बल्कि एक प्रकार के विषाद के साथ । आखिर वह दिन भी आ गया । मेरा सारा सामान ठीक-ठीक करके जेलर के दफ्तर भेज दिया गया । नहा-धोकर तैयार हुआ ।

बापू ने प्रेम से कुछ सलाह दीः ‘इतने दिनों के लगभग एकांत के बाद बाहर के कोलाहल में जाना होगा – मन उत्तेजित होगा । अतः बारह जाते ही पहले दिन खुराक कम लेना अच्छा है । सबसे मुलाकात करोंगे, पर इसलिए रात्रि-जागरण नहीं करना ।’

मैंने नीचे झुककर प्रणाम किया । मेरी आँखें भीग गईं, यह स्वाभाविक था, पर बापू की आँखें भी नम हो आईं । उन्होंने मेरी पीठ पर जोर से थप्पा मारा, जिसके बहाने मुझे प्रेम और आशीर्वाद दोनों प्रदान किया । विरह क्या होता है यह मुझे उसी दिन अनुभव हुआ ।

इतने दिनों तक लगातार बापू के साथ अकेले (अद्वितीय रूप में) रहने का लाभ ने मुझे इससे पहले मिला था और न इसके बाद मिला । इसलिए यह सहवास मेरे लिए धन्य और अलौकिक बना रहा ।