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जुगतराम दवे

 

37. आश्रम-जीवन

आश्रम में एक छात्रालय था, जिसमें देश-विदेश के विद्यार्थी रहते थे । कोई कातना सीखता, कोई पींजना, कोई करघे में खादी बुनना सीखता था । कुछ विद्यार्थी बढ़ई के कारखाने में चरखा बनाना भी सीखते । इन सब के साथ वे पढा़ई तो करते ही ।

आश्रम के छोटे बच्चों के लिए बाल-मंदिर भी चलता था। इसके लिए अलग से शिक्षक रखना चाहिए क्या ? नहीं, आश्रमवासी बहनें ही बालमंदिर भी चलातीं ।

आश्रम में सुंदर गौशाला थी, जिसमें बहुत-सी गायें थीं । आश्रम में एक छोटा-सा चर्मालय भी बनाया गया था, जिसमें मरे हुए जानवरों का चमडा़ नरम और कोमल बनाने की तालीम दी जाती । कत्ल किये हुए का चमडा़ पहनना कत्ल में साथ देने के बराबर होता है, इललिए आश्रमवासी इस अहिंसक चमडे़ के ही जूते – चप्पल आदि व्यवहार में लाते ।

आश्रम में खेती-बाडी़ भी होती थी । फलों के वृक्षों के साथ-भाजी भी उगायी जाती । खेतों में अनाज और कपास उत्पन्न होता ।

यह समस्त कार्य आश्रमवासी भाई-बहनें और बालक ही करते थे । अपनी-अपनी बारी के अनुरूप वे रसोई में काम करते, पानी भरते, बर्तन माँजते, झाडू लगाते, गौशाला की सफाई करते, पाखाना साफ करते, पानी और बगीचे में काम करते थे ।

सूर्योदय से सूर्यास्त तक गाँधीजी का आश्रम मधुमक्खी के छत्ते की भाँति उद्यम भरपूर उद्योग से गुंजित रहता था । गाँधीजी ने इसे ‘उद्योग मंदिर’ नाम उचित ही दिया था ।