| | |

काका कालेलकर

 

35. ‘मराठी की शिक्षा’

प्रत्येक व्यक्ति को अपने पडो़सी प्रान्त की भाषा जाननी चाहिए यह बापू का आग्रह होता ! जब मैं आश्रम के विद्यालय से जुडा़ तो बापूने पाठ्यक्रम में गुजराती, हिन्दी और संस्कृत के उपरांत मराठी भाषा भी एक विषय के रूप में रखी थी । एक बार उन्होंने कहा कि, ‘दक्षिण अफ्रिका के गिरमिटियों की सेवा करने के लिए जब मैंने तमिल भाषा सीखी तो मुंबई इलाके में रहकर मराठी न जानूँ, यह कैसे हो सकता है ?

मराठी सीखने का अवसर उन्हें यरवडा जेल में प्राप्त हुआ । उन्होंने मेरी सहायता से मराठी सीखने का मंसूबा बनाया । मामूली कैदियों के लिए जैसे-तैसे रखे पुस्तकालय में मराठी की चार-पाँच पाठ्यपुस्तकें मिली । इन्हीं से कार्य प्रारम्भ हुआ। बापू पढ़ते जाते, मैं शब्दों का अर्थ बताता जाता । जहाँ समझ नहीं पाते, वहाँ पूछते । रोज कुछ मिनट ही मराठी को दिये जाते । एक दिन कविता के पाठ में, हस्ताक्षर के विषय में ‘दासबोध’ में आयी स्वामी रामदास की पंक्तियाँ थीं ।

बापू को वे पंक्तियाँ इतनी अच्छी लगीं कि उन्होंने उन्हें लिख लिया, अनेक बार पढा़ और जहाँ नहीं समझ में आया, वहाँ पूछा । इतने से भी संतोष नहीं हुआ और उस पूरे परिच्छेद को स्वयं ने उतार लिया । आश्रम के साप्ताहिक पत्र के साथ भेज दिया और सूचित किया कि आश्रमवासी इसे ध्यानपूर्वक पढे़ और कंठस्थ करें । बापू की अपनी हस्तलिपि अच्छी नहीं थी इसलिए अच्छे अक्षरों की उन्हें विशेष कद्र थी ।

मराठी पढ़ते हुए एक दिन ‘अल्फ्रेड दि ग्रेट’ का पाठ आया । इंग्लैड का यह प्राचीन राजा एक बार शत्रु से पराजित होकर अज्ञातवास में एक वृद्धा के पास रहा था । वृद्धा ने उसे रोटी सेंकने का काम सौंपा । अपनी चिंता में डूबे रहने के कारण अल्फ्रेड का ध्यान रोटी और न रहा और रोटी जल गई । वृद्धा ने उसे इस लापरवाही के लिए खूब खरी-खोटी सुनाई ।

यह पाठ हमने साथ-साथ पढा़ । बाद में जब-जब मुझसे कोई गलती होती या कुछ भूल जाता या ध्यान न रहता तो बापू मुझे ‘किंग अल्फ्रेड’ कहते ।