| | |

उमाशंकर जोशी

 

13. ‘राजा के अतिथि’

1931 में गोलमेज परिषद में शामिल होने बापू लंदन गये थे । एक दिन राजा पंचम जार्ज ने सभी सदस्यों के लिए सांध्य-भोज का आयोजन किया था । हिन्दुस्तान के वजीर सर सेमुअल होर गाँधीजी को निमंत्रित करने के बारे में चिंतित थे । पहला तो यह कि राजा ऐसे बागी से भेटं करेंगे ? दूसरा, भेट करे तो भी गाँधीजी की वेशभूषा समारंभ के अनुरूप नहीं होगी । उन्होंने राजा से बात की तो राजा ने पहले तो क्रोधित होकर कहाः ‘क्या ? मेरे वफादार अधिकारियों पर हमला करने के इसके कुकृत्य के बाद भी, इस बागी फकीर को अपने महल में बुलाऊँ ?’ थोडी़ देर बाद उन्होंने फिर से ‘खुले घुटने वाले और योग्य लिबास रहित छोटे आदमी’ के प्रति अपनी अरुचि जतायी । परंतु अंत में तय हुआ कि पहनावे के बारे में कोई शर्त रखे बिना गाँधीजी को निमंत्रित किया जाय ।

समारंभ में उचित समय पर राजा के समक्ष गाँधीजी को लाने का काम वजीर ने स्वयं अपने जिम्मे रखा । उन्होंने गाँधीजी को राजा से मिलवाया और परिचय करवाया । वह क्षण बहुत कठिन था । गाँधीजी की बागावत भूलना राजा के लिए संभव न था । पिछला पूरा वर्ष गाँधीजी ने हिन्दुस्तान में प्रचंड सत्याग्रह चलाया था । परन्तु दोनों एक बार बातें करने लगे तो बड़ी सरलता से उनकी गाडी़ चलने लगी । राजा सहृदय मनुष्य थे और गाँधीजी की व्यावहारिकता का पूछना ही क्या ! बातचीत के दरमियान एक बार राजा की दृष्टि गाँधीजी के घुटनों पर क्षण-भर के लिए रुकी, तब वजीर के सीने में धड़कन बढ़ गई ।

बातचीत पूरी होने आयी। पंचम जार्ज अपने दायित्व को समझानेवाले राजा थे । विदाई के समय उन्होंने गाँधीजी को चेतावनी दीः ‘स्मरण रखिए मि. गाँधी, अपने साम्राज्य पर कोई आक्रमण मैं बर्दाश्त नहीं करूँगा ।’

हिंद के वजीर की साँस अटक गई कि अब टक्कर होगी क्या ?

परन्तु गाँधीजी की सज्जनता ने बात बना ली । उन्होंने उत्तर दियाः ‘आप जैसे माननीय का आतिथ्य अनुभव करने के पश्चात् मुझे आप के साथ राजनैतिक विवाद में नहीं पड़ना चाहिए ।’

और मित्रता के वातावरण में दोनों ने एक दूसरे से विदा ली ।

हिंद के वजीर ने छुटकारे की साँस ली ।