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उमाशंकर जोशी

 

14. ‘किस मुहँ से यह पी सकता हूँ ?’

1947 की गर्मियों में बिहार में फैले कौमी दावानल को शांत करने के लिए बापू कार्यरत थे । वहाँ से दिल्ली आये । उन दिनों उनकी खुराक बहुत कम हो गई थी ।

एक सुबह मनुबहन ने भोजन के समय एक प्याला आमरस दिया । बापू ने कहा, मालूम करके, पहले मुझे बतोओ कि आम का दाम क्या है ?

मनुबहन ने सोचा कि बापू विनोद कर रहे हैं । वह तो जरूरी लेखों की नकल करने में जुट गई। थोडी़ देर बाद देखा तो बापू ने रस नहीं लिया था । उसने उन्हें ग्रहण करने के लिए कहा । बापू बोलेः ‘मैं तो समझ रहा था कि तू आम की कीमत पूछकर ही आयेगी । आम भेंट में मिला हो, तो भी तुझे उसका दाम जानने के पश्चात् ही मुझे खाने देना चाहिए । यह तो तूने किया नहीं और पूछने पर भी जवाब नहीं दिया । आम का फल, मैंने सुना है कि एक नग दस आने में मिलता है । यह फल खाये बिना मैं जी सकता हूँ । ऐसे फल लेने से मेरे शरीर में लहू बढ़ता नहीं उल्टे घटता है । ऐसी असह्य महँगाई और तकलीफ के समय में तूने मुझे चार आम के रस से अच्छा-खासा भरा गिलास दिया अर्थात् अढा़ई रुपये का वह प्याला हुआ । भला मैं किस मुँह से यह पी सकता हूँ ?’

उसी समय बापू के दर्शन करने एक-दो निराश्रित बहनें अपने बालकों के साथ आईं । बापू ने तुरंत दो कटोरियों में दोनों बालकों को रस पीने के लिए दे दिया। उन्होंने आश्वस्त की साँस ली । मनुबहन से कहने लगेः ‘ईश्वर मेरा सहायक बना हुआ है – इसका यह साक्षात् उदाहरण है । प्रभु ने इन बालकों को भिजवाया और वह भी जैसे बालकों की मैं इच्छा रखता था वैसे ही बालक आये । जरा देख तो तू, ईश्वर की कैसी कृपा है ।’