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गांधी : प्रतिमा की कराहती वेदना

देश-विदेश के हजारों महत्वपूर्ण स्थलों, स्मारकों, संग्रहालयों एवं अन्यान्य शासकीय अर्ध-शासकीय, निजी भवनों में बापू की प्रतिमा स्थापित हुई है। ऐसा उनके प्रति आदरांजलि स्वरूप किया गया है; किंतु स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् जितना अपमान हमने गांधी प्रतिमा के साथ किया उतना शायद अन्य किसी राजनेता की मूर्ति के साथ नहीं। यद्यपि इस तरह का अपमान संविधान निर्माता, दलितों के मसीहा बाबा साहब अंबेडकर की मूर्ति के साथ भी होता रहा। फिलाहाल तो हम गांधी की प्रतिमा से जुड़ी कराहती वेदना की ही कथा कहेंगे। इसी तारतम्य में मैं प्रो. दिनेश ठाकुर के एक लेख को वर्णित करना चाहूँगा।

खंडित प्रतिमा की वेदना और आस्था का पुनर्स्थापन

महात्मा गांधी की एक सौ तैंतीसवीं जयंती के अवसर पर गांधी प्रतिमा से संबंधित दो समाचारों ने संवेदनशील पाठकों और राष्ट्रवादी चिंतकों के मन को झकझोरकर रख दिया। प्रकाशित समाचार के अनुसार हिंदी के जाने-माने कवि एवं साहित्यकार माणिक वर्मा की संस्कार समृध्द नगरी हरदा (मध्य प्रदेश ) के घंटाघर चौक पर स्थित गांधी प्रतिमा से गांधीजी का चश्मा किसी ने निकाल लिया। यह भी लिखा है कि मध्य प्रदेश के राजस्व मंत्री रघुवीर सिंह ने गांधी के इस स्वत्व हरण पर सक्त नाराजगी और अफसोस जाहिर किया है। दूसरे समाचार के अनुसार मेरठ कॉलेज में स्थापित राष्ट्रपिता गांधी की प्रतिमा को आंदोलनकारियों ने 2 अकतूबर को अल सुबह क्षतविक्षत कर कुरूप या विकृत कर दिया। मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के अनुसार आंदोलनकारी तत्त्वों ने एक सोची-समझी साजिश के तहत प्रतिमा को क्षतिग्रस्त किया। मेरठ के सहायक जिला मजिस्ट्रेट के अनुसार कॉलेज के प्रचार्य ने पुलिस में प्राथमिकी दर्ज कराई और यह भी संकल्प लिया गया कि क्षतिग्रस्त प्रतिमा के स्थापन पर राष्ट्रपिता की नवीन कांस्य प्रतिमा स्थापित की जाएगी। इन समाचारों के पार्श्व में ही कुछ अंतर से एक सचित्र समाचार प्रकाशित है, जिसमें राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से राष्ट्रपिता को श्रध्दांजलि अर्पित कर रहे है। माननीय प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति एवं कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा बापू की समाधि पर श्रध्दा-सुमन अर्पित किए जाने की खबर भी प्रकाशित की गई है। केंद्रिय पुलिस बल ने गांधाजी के प्रति अपनी श्रध्दा के प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के रूप में समाधि परिसर में वृक्षारोपण भी किया। परस्पर विरोधी प्रकृति की दो घटनाओं से आस्था, अनास्था और आक्रोश की विपरीत-गामी विचारधारा का परिचय तो मिलता ही है, यह भी पता चलता है कि दुर्विनीत असाहिष्णुता के चलते हम अपनी प्रजातांत्रिक दृष्टि और सुसंस्कृत मूल्य-बोध की तिलांजलि दे रहे हैं। गांधी प्रतिमा के विरूपण के साथ ही चश्मा छीनकर दृष्टि अपवंचन जैसा प्रतिशोध तब लिया जा रहा है,जब संपूर्ण देश राष्ट्रीय अंधत्व निवारण एवं दृष्टिहीनता नियंत्रण के दस दिवसीय महत्त्वकांक्षी महाभियान में लगा है। इसका समापन 10 अक्तूबर को विश्व दृष्टि दिवस के दिन होना है। छवि विदुपण अथवा गांधी प्रतिमा के चश्मा निकाल लेने, शरीर और गति को सहारा देनेवाली लाठी से वंचित कर देने की यह घटना कोई नई नहीं है, गांधीजी के जीवनकाल में भी ऐसी घटनाएँ हुई थी, किंतु गांधीजी ने न कभी किसी को अपमानित किया, नगण्य या तुच्छ ही समझा, व्यक्ति के भीतर छिपी अच्छाई, उसकी निसर्ग सिध्द नेकनीयती और अंतरात्मा की पवित्रता एवं गरिमा में गांधीजी की अडिग आस्था और विश्वास के परिणाम भी चमत्कारिक होते थे। गांधीजी के संपर्क में आनेवाला व्यक्ति खुद को उठाने और गांधी की दृष्टि में अपने को उस विश्वास के काबिल बनाने का सत्प्रयास करता था। उसके मूल्य-बोध में एक आत्मिक शुचिता आती थी। आँखें तो उसकी अपनी पत्नी होती, किंतु ज्योति और दृािष्ट गांधी की देन होती थी। प्रसिध्द अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने गांधीजी के कायाकल्पकारी पारस स्पर्श का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, `यह गांधी का ही चमत्कार था कि भारत के स्वतंत्रता-संग्राम को उन्होंने मूल्यों का युध्द बनाकर एक पवित्र अनुष्ठान की गरिमा दी। संस्कारित नैतिक दृष्टि दी, जीवन अर्थपत्ता दी। इस संघर्ष का लक्ष्य मात्र स्वतंत्रता या राजनीतिक सत्ता हासिल करना ही नहीं रह गया। यह नजरिया या दृष्टिकोण गांधी युग की सबसे कीमती उपलब्धि है।`

आज इसे सबसे बड़ी विड़ंबना ही कहा जाएगा कि जिस गांधी ने संपूर्ण विश्व को नई दृष्टि दी, उसकी प्रतिमा को ही चश्मे से वंचित कर दृष्टि छीनने का असफल किंतु कुत्सित प्रयास किया जा रहा है। वह भी तब जब सारा भारत राष्ट्रीय दृष्टि विहीनता नियंत्रण एवं अंधत्व निवारण के महाभियान मतें लगा हुआ है। गांधीजी को आवश्यक वस्तुओं के अपहरण या शब्दांतर में कहें तो स्वत्व हरण की घटनाएँ उनके जीवनकाल में भी घटीं। एक बार यात्रा में पटना से दिल्ली आते समय गांधीजी की चिरसंगिनी जेब घड़ी, जिसे वे अकसर कमर में एक पतली चेन के सहारे लटकाए रहते थे। गायब हो गई। गांधीजी बहुत दुःखी हो गए। उनकी धारणा थी कि अपने अनुयायियों के नैतिक उन्नयन, विकास या व्यक्तित्व, संस्कार के निमित्त वे उतना प्रयास नहीं कर सके जितना वांछनीय था। इसी परिताप के कारण उन्हेंने प्रायश्चित स्वरूप दो दिनों के उपवास की घोषणा कर दी।

बापू ने जब घड़ी को यथास्थान रखे पाया तो एक अवर्णनीय प्रसन्नता की आभा से उनका चेहरा खिल उठा। घड़ी की धड़कन से ही बापू ने अपहरणकर्ता के मौन परिताप और पश्चाताप के सूक्ष्मतम स्पंदनों को सुन और पढ़ लिया। बच्चों जैसी भोली उत्फुल्लता से बापू ने रात में ही सरदार पटेल और नेहरू को फोन करके घड़ी के फिर से मिलने की सूचना दे दी। पटेल आश्चर्यचकित थे कि वह कोई बहुत बड़ी अनहोनी बात तो नहीं थी, किंतु लॉर्ड माउंट बेटन का फौजी प्रशासन हृदय भी समझ गया कि गांधी की वेदना इंगरसोल कंपनी द्वारा निर्मित तेरह शिलिंग मूल्यवाली उस घडी के लिए नहीं थी और न उस भूमिका के लिए ही थी, जो वह घड़ी गांधीजी के दैनंदिन जीवन में निभा रही थी। गांधीजी का हृदय तो उस आस्था और विश्वास के लिए रो रहा था जो मनुष्य के अंतकरण की पवित्रता और बुनियादी अच्छाई में था और जिसका एक टुकड़ा घड़ी के रूप में वह चोर ले गया था। गांधीजी को लगा कि उनका पैराडाइज (स्वर्ग) खो गया, किंतु पश्चात्ताप के अंतदहि में सुलझे अपहरणकर्ता व्यक्ति द्वारा घड़ी को फिर से उसी जगह रख देना मानो पैराडइज रिगेंड था। मनुष्य में आस्था, विश्वास के स्वर्ग की पुनप्राप्ति, पुनर्स्थापना। काश गांधी प्रतिमा को चोट पहुँचानेवाले और गांधी की आँखों से चश्मा चुरानेवाले समझ पाते कि अपनी पवित्र विचारधारा से हिंदुस्तान कें ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व की आँखो को धोकर जिस पवित्र निर्मल दृष्टि का प्रत्यारोपण गांधी ने कर दिया है, वह दृष्टि भले ही इने-गिने लोगों में है, कैसे धूमिल और मंद होगी। आँखे भगवान् सभी को देते हैं और उनसे देखने का काम सभी लेते हैं, किंतु दृष्टि का वरदान तो किसी बिरले को ही मिलता है, और रही खुद देखते हुए दिखा सकने की सामर्थ्य की बात तो वह किसी संजय की वरदानी आँखों को ही मिलती है, जो अंधे धृतराष्ट्र को न जाने क्या-क्या दिखा गई। गांधी की प्रतिमा ने ही नहीं, बल्कि खुद गांधी ने आपने जिस्म और आत्मा पर अनेक जख्म सहे। उन्होंने अपने भग्न स्वप्नों की अकथनीय वेदना भी भोगी, किंतु प्रत्येक चोट के बाद, जख्म के हर निशान के साथ यह महामानव निखरता और सँवरता गया।

विख्यात अमेरिकी पत्रकार एवं बापू के जीवनीकार लूई फिशर ने लिखा है कि गांधी की देन में सबसे बहुमूल्य है वह जीवन-दृष्टि या नजरिया, जिससे देखने-परखने का नया अंदाज या ढंग विकसित हुआ। अंधापन शारीरिक या चाक्षुष न होकर अंतर्दृष्टि का भी हो सकता है, जो नैतिक, सांस्कृतिक अंधत्व को लाइलाज बना सकता है। गांधी जयंती एवं विश्व दृष्टि दिवस 10 अक्तूबर के सांस्कृतिक संदर्भ में विशेष लेख।

बापू की खंडित प्रतिमा की वेदना तथा इनकी प्रतिमा से संबध्द अन्यान्य प्रिय-अप्रिय घटनाओ, वातावरणों का व्यक्त करती व्यंग्य चित्रकारों

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