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खण्ड 5 :
ईश्वर-भक्त


57. प्रार्थना पर श्रद्धा

महात्माजी का जीवन प्रार्थनामय था । बिना हवा के वे एक जी सकते, परन्तु प्रार्थना के बिना जी नहीं सकते थे । प्रार्थना उनके जीवन का आधार था । ईश्वर पर उनकी श्रद्धा थी । अपने को साक्षात्कार हो गया है, ऐसी भाषा वे नहीं बोलते थे, परन्तु यह कहते थे कि आप मेरे सामने हैं, यह जिनका सत्य है, उतना यह भी सत्य है कि ईश्वर है । मुझे उसका भान होता है, उस अनंत सत्य का कभी-कभी धूमिल दर्शन होता है ।

उन दिनों महात्माजी अफ्रिका में थे । जीवन का साधना जारी थी । भारत के भावी जीवन की सम्पूर्ण बुनियाद अफ्रिका में डाली जा रही थी । सत्याग्रह प्रारम्भ हो गया था । भारतीय जनता दृढ़ निश्चय के साथ खडी़ थी। अफ्रीका में बसे भारतीय नर-नारी नव इतिहास का निर्माण कर रहे थे । शान्त-दान्त महात्माजी दिव्य मार्गदर्शन कर रहे थे ।

आज कुछ गम्भीर बात थी । जनरल स्मट्स तो फौलादी शख्स थे । गांधीजी के आन्दोलन को मिट्टी में मिला देने पर तुले हुए थे । परन्तु जो भी हो, आत्मशक्ति का प्रभाव उन पर भी पड़ रहा था । गांधीजी को उन्होंने बुला भेजा । जोहान्सबर्ग जाने के लिए गांधीजी निकले । स्टेशन पर पोलक और उनकी धर्मपत्नी, दोनों आये थे । महात्माजी और पोलक गंभीरतापूर्वक बात कर रहे थे, परन्तु बात रूक गयी । सफलता मिलेगी या विफलता ?

पोलाक की पत्नी चिन्तित थीं । उनके मन में रह-रहकर यही आता था कि गांधीजी के लिए हम क्या कर सकते हैं ?

“बापू, भाई”-उन्होंने आवाज दी । उन दिनों गांधीजी को लोग बापू के बदले भाई कहकर पुकारते थे । पोलक छोटे भाई थे, तो गांधीजी बडे़ भाई ।

गांधीजी ने पूछाः ‘क्या बात है ? तुम ऐसी चिन्तित क्यों हो ?”

“आपके लिए मैं क्या करुँ ? आप तो वार्ता के लिए जा रहे हैं । मन ऊपर-नीचे हो रहा है । क्या करूँ ?”

“प्रार्थना करो। अन्तःकरणपूर्वक प्रार्थना करो । इससे अधिक करने जैसा दूसरा क्या हो सकता है ?” गांधीजी शान्ति से बोले ।