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खण्ड 5 :
ईश्वर-भक्त


58. भगवान् भरोसे

सन् 1919-20। आन्दोलन के दिन थे । गांधीजी देशभर में बिजली की तरह संचार कर रहे थे । असम का प्रवास आरम्भ हुआ । असम में आवागमन की बहुत असुविधा थी । सर्वत्र प्रचंड नदियाँ हैं । ऊँचे पर्वत, गहरी कन्दराएँ ! गाड़ियाँ विशेष हैं नहीं । एक बार एक गाडी़ गयी, तो दूसरी कब मिलेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं । एक बार तो मालगाडी़ के डिब्बे में ही बैठकर जाना पडा़ ।

रात का समय था । गांधीजी को एक डिब्बे में बैठाया गया था । उस छोटे डिब्बे में वे अकेले थे । अपेक्षा यह थी कि रातभर उन्हें आराम मिले । परन्तु गाड़ी आगे चली गयी । गार्ड बीच में था । काफी दूर निकल जाने के बाद उसके ध्यान में आया कि पीछे के कुछ डिब्बे छूट गये हैं । गाडी़ रुकी । गांधीजी का डिब्बा कहाँ है ? वह तो पीछे छूट गया ! कार्यकर्ता चिन्ता के मारे परेशान हुए । पीछे से कोई गाडी़ आ जाय तो ? गाडी़ को धीरे-धीरे पीछे लाया गया । कार्यकर्ता डिब्बे के फाटक पर खडे़ थे । काफी सावधीनी रखी गयी कि गाडी़ जाकर गांधीजी के डिब्बे को जोर से धक्का न दे । गांधीजी का डिब्बा दीख पडा़ । गांधीजी जाग गये थे और अपनी मधुर मुसकान से बैठे थे ।

मित्रों ने कहाः “बापू, आज कितनी बडी़ आफत आ गयी थी !” बापू ने हँसकर कहाः अगर पीछे से कोई गाडी़ आती तो शायद प्रकृतिमाता की गोद में चला जाता । बडा़ मजा आता ।”