39. सर्वत्र आत्मदर्शन का पाठ |
गांधीजी बडे़ दृढ़व्रती थे । जो भी व्रत उन्होंने लिया, उसे कभी तोडा़ नहीं । वे रोज काता करते थे । उनकी नित्य कताई कभी खंडित नहीं हुई । कभी-कभी खुद ही अपनी पूनी भी बना लेते थे । एक दिन उनकी कताई नहीं हो पायी थी । पूनी समाप्त हो गयी थी । “आज अपनी पूनी मैं ही बनाता हूँ । लाइये, धुनकी (युद्ध पिंजन) । अच्छी तरह धुन लेता हूँ ।’’ यह कहकर राष्ट्र का पिता रूई धुनने बैठा । रात का समय था । महात्माजी तुंई-तुंई करते धुनते रहे । परन्तु हवा में नमी थी । धुनकी की ताँत नम हो जाती थी । उसमें रूई चिपक जाती थी । धुनाई अच्छी नहीं हो रही थी । पास ही मीराबहन बैठी थीं । वह तो साक्षात् सेवामूर्ति थीं । पंचक्रोशी में दवा लेकर घूमती रहती थीं । झोपडी़-झोपडी़ में जाती थीं । “बापू, क्या ठीक से धुनाई नहीं हो रही है ?” “रूई चिपकती है । लेकिन एक उपाय है ।’’ “क्या ?” “नीम की पत्ती मसलकर उसका रस ताँत पर लगायें, तो रूई चिपकती नहीं ।” “पत्ती मैं ले आऊँ ?” “हाँ, लाओ ।” मीराबहन बाहर गयीं । वह नीम के पेड़ से खासी-भली टहनी ही तोड़ लायीं । “यह लीजिये पत्ती । टहनी ही ले आयी हूँ । पत्तियाँ खूब हैं ।’’ ‘‘मुट्ठीभर पत्ती के लिए इतनी बडी़ टहनी क्यों तोड़ लायी ? और इधर आओ । यह देखो, ये पत्ते कैसे सोये हुए-से दिखते हैं । व्यर्थ ही तुम टहनी लें आयी । जरूरत थी, इसलिए सिर्फ मुट्ठीभर पत्तियाँ ही लाना ठीक था न ?” महात्माजी बोलते रहे । मीराबहन की आँखें आँसुओं से भर आयीं । पेड़-पौधों पर महात्माजी का यह प्रेम देखकर मीराबहन को एक नया हीं दर्शन हुआ । भारतीयों की आध्यात्मिक वृत्ति का भाष्य हीं था वह प्रवचन । सर्वत्र आत्मा के दर्शन करना सीखें, इसका मूक प्रवचन । ऐसे थे महात्माजी ‘प्रेम-सिन्धु’ । |