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खण्ड 4 : प्रेम-सिन्धु


40. गांधीजी की हार्दिकता

महापुरुषों के आँसुओं में और मधुर वाणी में अपार शक्ति होती है । ऋजुता ही उनका पराक्रम होता है । सुना है कि स्वामी रामतीर्थ की मन्द मुस्कान असरकारक थी । एक बार एक सज्जन वाद-विवाद करने श्री रामतीर्थ के पास पहुँचे । किन्तु रामतीर्थ का मधुर हास्य देखकर वाद करना भूल गये और प्रणाम करके लौट आये । महात्माजी के पास भी ऐसा ही जादू था ।

एक बार राष्ट्रसभा (कांग्रेस) को कार्यकारिणी की बैठक थी । देशबन्धु दास कार्यकारिणी के सदस्य थे । इन्होंने अपने मित्र से कहाः “मैं आज महात्माजी से खासी चर्चा करनेवाला हूँ । सभी मुद्दे तैयार करके रखे हैं । देखें, गांधीजी क्या उत्तर देते हैं ।” बैठक प्रारम्भ हुई । महात्माजी ने हँसते-हँसते प्रवेश किया । सबने नमस्कार किया । महात्माजी ने अपना निवेदन प्रस्तुत किया । अत्यन्त निर्मलता और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किये हुए विवरण ने सभा को जीत लिया ।

बापूजी ने पूछाः “किसीको कोई शंका है ?”

सदस्यों ने कहाः “सब निःशंक हो गये हैं ।”

“ठीक है । मैं जाता हूँ”-कहकर गांधीजी ने सबको प्रणाम किया और मुस्कान बिखेरते हुए चले गये ।

देशबन्धु से किसीने पूछाः “आप तो गांधीजी से चर्चा करनेवाले थे न ? फिर चुप क्यों रहे ?”

देशबन्धु का उत्तर थाः “बताऊँ ? हमेशा ऐसा ही होता है । पूरी तैयारी करके आता हूँ, परन्तु गांधीजी के एक-एक शब्द में जो हार्दिकता टपकती है, वह मुझे जीत लेती है । हमारा बुद्धिवाद निष्प्राण सिद्ध होता है । अंत में हृदय ही वाद-प्रिय बुद्ध को जीत लेती है ।”