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खण्ड 3 :
कर्म-योगी

37. हरिजन-कार्य में एक वर्ष

महात्माजी ने सन् 1932 में हरिजनों के लिए उपावास किया । साम्प्रदायिक फैसले (कम्युनल अवार्ड) को बदलवा लिया । डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने सम्मति दी । महात्माजी ने जेल से हरिजन पत्र आरम्भ किया । कुछ दिन बाद सरकार ने उन्हें छोडा़ । वे अहमदाबाद गये । साबरमती का आश्रम जब्त करने की सूचना उन्होंने सरकार को दी । आजादी की लडा़ई जारी थी । सरकार आश्रम को ले नहीं रही थी । तब महात्माजी ने उस आश्रम को हरिजन-सेवा के लिए हरिजन सेवक संघ के सुपुर्द कर दिया और स्वयं सविनय अवज्ञा का प्रचार करने के लिए निकल पडे़ । क्योंकि देशभर में आन्दोलन चालू था । वे अहमदाबाद के निकट एक गाँव में गये । सरकार ने उन्हें पकड़कर यरवदा लाकर रखा । वहाँ से पहले की तरह साप्ताहिक हरिजन के लिए लेख लिखने की सरकार से अनुमति माँगी । जिद्दी सरकार ने अनुमति नहीं दी । तब फिर से महात्माजी ने उपवास आरम्भ किया । सरकार ने फिर उन्हें छोडा़ । तब महात्माजी यरवदा गाँव में ही सत्याग्रह करने निकल पडे़ । सरकार ने उन्हें फिर से पकडा़ । फिर उन्होंने हरिजन के लिए लिखने की अनुमति माँगी। सरकार ने फिर इन्कार किया । राष्ट्रपिता ने फिर से उपवास शुरू किया । फिर वे रिहा किये गये । सरकार मानो गांधीजी को सत्यपरीक्षा कर रही थी । भले ही सरकार को कोई शर्म न हो, लेकिन गांधीजी तो सद्-अभिरुचि के उपासक थे । यह चूहे-बिल्ली का खेल कब तक चलता ? मदान्ध साम्राज्शाही राष्ट्रपिता का कदम-कदम पर अपमान कर रही थी ।

आखिर महात्माजी ने तय किया कि सरकार छोड़ भी दे, तो भी एक साल जेल में ही हैं, ऐसा मानकर राजनैतिक कार्य न किया जाय । फिर अस्पृश्यता-निवारण के निमित्त सारे देश में दौरा करने का उन्होंने निश्चय किया । परन्तु प्रवास पर निकलने से पहले पर्णकुटी में उन्होंने 21 दिन का उपवास किया । उस समय के उनके साथी स्वामी आनन्द और निजी सचिव श्री प्यारेलालजी नासिक-जेल में थे । महात्माजी ने उन्हें पत्र में लिखाः “हरिजन-कार्य के लिए धनी लोग आर्थिक सहायता तो देंगे । परन्तु उपवास के द्वारा मैं पहले आध्यात्मिक पूँजी इकट्ठा कर रहा हूँ ।”