32. मिताहारी बापू |
मद्रास प्रान्त में हरिजन-यात्रा चल रही थी । एक स्टेशन के पास भोजन की व्यवस्था की गयी थीं । बापू ने सोचा कि यहाँ बकरी का दूध वगैरह कहाँ मिलेगा ? परन्तु उन्होंने पूछा नहीं । भोजन का समय हुआ । उधर जयघोष हो रहा था । इधर बापू थाली पर बैठे थे । मीराबहन बैठीं । दूसरे लोग भी बैठे । बापूजी का खाना समाप्त होने को आया । मीराबहन सिर्फ गोभी की उबली सब्जी खाती थीं । बापू उठने को ही थे कि मेजवान महिला आयीं और बोलीः “महात्माजी, ठहरिये । यह बकरी का दूध लायी हूँ ।’’ “बकरी का ?” “जी, हाँ । चार दिन से खास इसीलिए एक बकरी लायी हूँ । उसे बढ़िया चारा खिलाया है, गाजर आदि, ताकि मीठा दूध मिले । यह दूध सात तह कपडे़ से छाना है । भाप में गरम किया है । लीजिये ।’’ “लेकिन मेरा पेट भर गया है ।’’ “ऐसा न कहिये ।’’ “मीराबहन को दीजिये ।’’ “बापू, मेरा भी पेट भरा है ।” गांधीजी ने मीराबहन को इशारा किया । उनकी निगाहों में यह भाव था कि इस महिला को कितना बुरा लगेगा ।
मीराबहन ने कहाः “ठीक है, लाइये ।” मीराबहन ने प्याला खाली कर दिया । मन्द-मन्द मुस्करती हुई बोलीः “बापू, सचमुच अमृत जैसा है दूध ।” “तुम्हारे नसीब में था, मेरे नहीं ।” बापू जोर से हँसते हुए बोले । सबको आनन्द हुआ । |