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खण्ड 3 :
कर्म-योगी

32. मिताहारी बापू

मद्रास प्रान्त में हरिजन-यात्रा चल रही थी । एक स्टेशन के पास भोजन की व्यवस्था की गयी थीं । बापू ने सोचा कि यहाँ बकरी का दूध वगैरह कहाँ मिलेगा ? परन्तु उन्होंने पूछा नहीं । भोजन का समय हुआ । उधर जयघोष हो रहा था । इधर बापू थाली पर बैठे थे । मीराबहन बैठीं । दूसरे लोग भी बैठे । बापूजी का खाना समाप्त होने को आया । मीराबहन सिर्फ गोभी की उबली सब्जी खाती थीं । बापू उठने को ही थे कि मेजवान महिला आयीं और बोलीः

“महात्माजी, ठहरिये । यह बकरी का दूध लायी हूँ ।’’

“बकरी का ?”

“जी, हाँ । चार दिन से खास इसीलिए एक बकरी लायी हूँ । उसे बढ़िया चारा खिलाया है, गाजर आदि, ताकि मीठा दूध मिले । यह दूध सात तह कपडे़ से छाना है । भाप में गरम किया है । लीजिये ।’’

“लेकिन मेरा पेट भर गया है ।’’

“ऐसा न कहिये ।’’

“मीराबहन को दीजिये ।’’

“बापू, मेरा भी पेट भरा है ।”

गांधीजी ने मीराबहन को इशारा किया । उनकी निगाहों में यह भाव था कि इस महिला को कितना बुरा लगेगा ।

मीराबहन ने कहाः “ठीक है, लाइये ।”
“लीजिये । आप ही पीजिये । वह महात्माजी को पहुँच जायगा । आप सब एक ही हैं ।”

मीराबहन ने प्याला खाली कर दिया । मन्द-मन्द मुस्करती हुई बोलीः “बापू, सचमुच अमृत जैसा है दूध ।”

“तुम्हारे नसीब में था, मेरे नहीं ।” बापू जोर से हँसते हुए बोले । सबको आनन्द हुआ ।