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खण्ड 3 :
कर्म-योगी

33. प्रयत्नशील बापू

गांधीजी से जो गुण सीखने जैसे हैं, उनमें से एक है उनकी काटकसर (मितव्ययिता) । गांधीजी अपने नित्य-जीवन में इसका बडा़ ध्यान रखते थे कि कोई भी चीज जरूरत से ज्यादा काम में न ली जाय । वैसे करना वे गुनाह मानते थे और चोरी करने जैसे समझते थे । हमें जितने की आवश्यकता है, उससे अधिक किसी भी वस्तु का उपयोग करने का अर्थ है, दूसरे को उसका उपयोग करने से वंचित रखना, इसी का नाम है चोरी ।

गांधीजी सेवाग्राम में थे, तब की बात है । उनके आश्रम में अनेक अतिथि आते थे-कोई मिलने आता, कोई बात करने आता, कोई चर्चा करने आता । गांधीजी को कुछ लिखकर देना होता या किसीके पास कोई चिट भेजनी होती उसके लिए उन्हें छोटी-छोटी कागज की परचियों की जरूरत पड़ती । तब वे कोरा कागज उपयोग किये हुए कागजों के टुकडे़ काम में लेते थे ।

सरकारी पत्रक आते थे । उनके चारों ओर किनारे पर भरपूर जगह खाली छूटी रहती थी । बाजू के उस कोरे कागज की पट्टी काटकर गांधीजी उनका उपयोग कर लेते थे ।

एक बार आश्रमवासी लोग इकट्ठा बैठे थे । गांधीजी ने सामने पडी़ हुई कैंची उठायी और कागज के कोरे हिस्से की पट्टी काटना शुरू किया । उन्हें ठीक से जम नहीं रहा था । पास में बैठे एक आश्रमवासी ने कहाः “बापू, कैंची मुझे दीजिये । आप ठीक से नहीं काट सकेंगे । मुझे आदत है ।’’

गांधीजी बोलेः “नहीं काट सकूँगा तो क्या हुआ ? कोशिश करना तो मेरे हाथ में है ।’’ इतना कहकर गांधीजी ने काटने का अपना काम जारी रखा । लाख कोशिश करने पर भी उनसे वह ठीक नहीं कट रहा था । परन्तु उन्होंने कैसे-वैसे वह काम पूरा करके ही छोडा़ ।

काम ठीक नहीं बना, फिर भी तो पूरा तो हुआ ही ।

बापूजी कुछ बातों में बडे़ जिद्दी थे । कोई कहे कि फलानी चीज मैं नहीं कर सकता, यह उनको बिलकुल पसन्द न था । वे मानते थे कि हर काम उत्तम रीति से करने का प्रयत्न प्रामाणिकता के साथ करना हरएक का कर्तव्य है ।