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खण्ड 3 :
कर्म-योगी

31. गांधीजी की कर्म-पूजाः कताई

सन् 1931 के दिन थे । सन् 30 का महान् सत्याग्रह स्थगित हो चुका था । पं मोतीलाल नेहरू हाल में ही निजधाम लिधारे थे । जवाहरलालजी को ढाढ़स बँधाकर गांधीजी दिल्ली लौट आये थे । सारे राष्ट्र का भार उनके सिर पर था । उन्हें शोक करते बैठने को समय नहीं था ।

आजादी की लडा़ई से राष्ट्र नये तेज से चमक रहा था । परन्तु वार्ता अभी होने को थी । अन्तिम शर्तें तय करना बाकी था । विदेशी माल की दूकानों पर पिकेटिंग का हक, समुद्र के पानी से बना नमक इकट्ठा करने या अपने उपयोग के लिए बना लेने का हक और इसी तरह अन्य कुछ प्रश्नों पर वाइसराय इर्विन और गांधीजी के बीच बातचीत हो रही थी । दूसरी भी काली छायाएँ मँडरा रहीं थीं । सरदार भगतसिंह और उनके बहादुर साथियों को फाँसी की सजा सुनायी गयी थी । उनके बारे में भी गांधीजी यथासंभव प्रयत्न कर रहे थे । सारे राष्ट्र का कारोबार उन्हें सँभालना था ।

उन दिनों महात्माजी को 17-18 घंटे काम करना पड़ता था । एक दिन 22 घंटे काम करना पडा़ । वाइसराय के साथ रात के 12 बजे तक बातचीत होती थी । एक दिन रात बारह बजे के बाद गांधीजी घर लौटे । दो बजने को आये । वह राष्ट्रपिता क्या घर आकर सोया होगा ? थका हुआ वह शरीर क्या बिस्तर पर पडा़ होगा ? नहीं । घर आकर वे चरखा ले बैठे । क्योंकि रोज की कताई बाकी थी । कातना तो उनके लिए कर्म-पूजा थी । चरखे को वे ईश्वर करते थे । क्योंकि चरखा गरीब को रोटी देता है । चरखे का धागा उनको दरिद्रनारायण से जोड़ता था, गरीबों के श्रम-जीवन से जोड़ता था । रात को थके-माँदे लौटने पर भी, दो बजे चरखा चलाते बैठनेवाले बापू को मूर्ति आँखों के सामने आती है, तो हाथ नमस्कार के लिए जुड़ जाते हैं ।