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खण्ड 2 :
राष्ट्रपिता

22. सम्राट् से भेट !

बापू उस समय लन्दन में थे । वे वहाँ दरिद्रनारायण के प्रतिनिधि के नाते गये थे । ब्रिटिश सरकार के निमन्त्रण से गये थे । वे अपने को ब्रिटिशों का मेहमान मानते थे ।

बर्किघम पैलेस से राजा और रानी से मिलने के लिए निमंत्रण आया । बापू के सामने प्रश्न खडा़ हुआ कि जाँय या नहीं । उधर हिन्दुस्तान की जनता पर सरकार ने हथियार तान रखे हैं । मैं क्या इधर सम्राट् का निमन्त्रण स्वीकार करता रहूँ । परन्तु मैं ब्रिटिशों का अतिथि हूँ । मैं व्यक्तिगत तौर पर आया होता तो सम्राट् के निमंत्रण को ठुकरा सकता था । परन्तु आज तो मैं उनके अतिथि के रूप में हूँ । मुझे जाना चाहिए । अंन्त में बापू ने जाने का निर्णय किया । लेकिन ब्रिट्श अधिकारियों से कहाः

“मैं अपनी पोशाक नहीं बदलूँगा । मैं अपनी नित्य की पोशाक में ही आऊँगा । हर्ज न हो तो बताइये ।’’

उत्तर मिला कि कोई हर्ज नहीं है । ब्रिटिश-सम्राट् से मिलने के लिए भारतीय जनता का हृदय-सम्राट् घुटने तक का कच्छ पहनकर गया ।

साम्राज्य का अभिमानी चर्चिल इससे लाल-पीला हो गया था । परन्तु उस कच्छ के अपार वैभव की महिमा चर्चिल भला क्या जाने !