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खण्ड 1 :
कला-प्रेमी और विनोद

8. मानस-पुत्र बनने का आनन्द

महात्माजी ने प्रथम बार देशव्यापी सत्याग्रह शुरु कर दिया । उनकी पुकार भारत के हृदय को जगा चुकी थी । मानो दस हजार वर्षों के राष्ट्रीय इतिहास की आत्मशक्ति पुकार रही थी । वह पुकार परिचित सी लगीः “प्रार्थना करो । उपवास करो । आत्मसमर्पण करो ।’’ यह थी वह पुकार । उस पुकार से लाखों के जीवन में क्रांति हुई ।

गांधीजी साबरमती-आश्रम में थे । एक हट्टा-कट्टा नौजवान उनसे मिलने आया। गांधीजी का वजन मुश्किल से सौ पौण्ड होगा, तो इस सुन्दर नवयुवक का दो सौ से ज्यादा था । महात्माजी का चरण-स्पर्श कर उस युवक ने उनके हाथ में पत्र दिया । पढ़कर महात्माजी गंभीर हो गये। फिर हँसते हुए बोलेः

“फिर क्या करना है ?’’

‘ना नहीं कहियेगा । मुझे अपना पुत्र मान लीजिये, मानो गोद लिया हुआ ?”

“मेरी गोद कितनी छोटी है, तू भला इसमें समायेगा कैसे ? बापू हँसते-हँसते बोले

जमनालालजी की आँखें गोली हो गयीं । अन्त में महात्माजी ने कहाः “तो ठीक है । बन जा मेरा पुत्र । मैं अपनी तरफ से पिता का नाता रखूँगा । पुत्र का नाता निभाना तेरा काम है ।’’

जमनालालजी के आनन्द की सीमा नहीं रही । फिर अन्त तक वह नाता बना रहा