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खण्ड 5 :
ज्योति-पुरूष

55. ‘श्रद्धा चाहिए’

मैं बडों से हमेशा दूर रहता हूँ । सूर्य से दूर रहकर धूप ली जाय और अपने जीवन का विकास किया जाय, यही हमारा प्रयत्न हो, एसी मेरी वृत्ति है । नासिक-जेल में श्री प्यारेलालजी ने मुझसे कहाः ‘‘छूटने पर आप गांधीजी से मिलिये । जमनालालजी मिलायेंगे ।’’

मैंने कहाः ‘‘मैं नहीं जाऊँगा । अपना रोना लेकर कहीं जाने की मेरी इच्छा नहीं है ।’’

मैं जेल से छूटकर अमलनेर आया । जमनालालजी का पत्र आयाः ‘‘आप आइये। महात्माजी से आपकी मुलाकात का समय निश्चित करूँगा ।’’

मैंने लिखाः ‘‘क्षमस्व। मैं नहीं आ सकता ।’’

बाद में कुछ दिन तक मैं एक गाँव में रहा था । गांधीजी अमलनेर होते हुए वर्धा की ओर जानेवाले थे । हम स्टेशन पर उनके लिए तथा उनके साथियों के लिए खाना-पिना ले गये । गाडी़ के छूटने का समय हो रहा था । किसीने मुझे गाडी़ में ढकेल दिया । दो स्टेशन तक स्वयं सेवक साथ जानेवाले थे । गांधीजी और उनके साथी गाडी़ में भोजन करनेवाले थे । और फिर वे बर्तन लेकर स्वयंसेवक लौटती गाडी़ से आने वाले थे । मैं जानेवाला नहीं था । लेकिन ढकेल दिया गया, तो जाना ही पडा़ ।

मुझसे कहा गयाः ‘‘आपको दो मिनट का समय दिया गया है । गांधीजी के पास जाइये ।’’

मैं नम्रता के साथ गांधीजी के सामने जा बैठा । प्रणाम किया । उनके लिए हमने आम का रस दिया । वह पीकर वे बर्तन धोने निकले । मैंने आगे जाकर कहाः ‘‘मैं धो दूँगा ।’’ इशारे से उन्होंने मना किया । हाथ-मुँह पोंछकर गांधीजी बैठे । मुझे कुछ पूछना नहीं था । मुझे किसी तरह की शंका नहीं थी । आखिर मुश्किल से मैंने कहाः ‘‘मैं एक गाँव में रहता हूँ । लेकिन मुझे समाधान नहीं है । लोगों को मेरे प्रवचनों की आवश्यकता नहीं है । उनकी आर्थिक स्थिति कैसे सुधारूँ ?’’

‘‘गाँव की सफाई किये जाओ ।’’

‘‘वह तो हम करते हैं ।’’

‘‘तब ठीक है। लोगों की सेहत सुधरेगी । उससे वे ज्यादा दिन काम करेंगे । इससे उनकी आर्थिक स्थिति कुछ सुधरेगी । दवा में पैसे खर्च नहीं होंगे । घर के लोगों का समय नष्ट नहीं होगा । निराश होने से काम नहीं चलता । सेवक में श्रद्धा चाहिए । दस साल में भी अगर हमें एक समानधर्मी मिलें, तो भी बहुत हुआ, ऐसा मानना चाहिए ।’’

दो मिनट समाप्त हुए । मैं प्रणाम कर फौरन् उठ आया । ‘श्रद्धा चाहिए’ ये उनके शब्द आज भी कानों में गूँज रहे हैं ।