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खण्ड 5 :
ज्योति-पुरूष

54. ध्येय-निष्ठा और अलिप्तता

सन् 1908 की बात है । लोकमान्य तिलक को छः वर्ष की कालेपानी की सजा हुई थी, और उधर अफ्रीका में गांधीजी भी जेल में थे । जोहान्सबर्ग की जेल में दूसरे कैदियों की बीच ही उन्हें रखा गया था । जिस दिन पहली बार उन्हें कोठडी़ में शराबी, डाकू, चोर आदि नाना प्रकार के कैदी थे । वे चाहे जो बकते थे, चुहलबाजी करते थे । गांधीजी रातभर जागते रहे। वह रात वे कभी भूले नहीं ।

धीरे-धीरे उनकी वृत्ती शान्त हुई । बदन पर कैदी के कपडे़ थे । कडी़ सजा हुई थी । उन्हें पत्थर फोड़ने का काम दिया गया था । एक दिन पत्थर फोड़ते-फोड़ते उनके हाथ से खून बहने लगा ।

साथी सत्याग्रहीयों ने कहाः ‘‘बापूजी, काम बन्द कीजिये । अँगुलियों से खून बह रहा है ।’’

बापू ने कहाः ‘‘जब तक हाथ काम करता रहेगा, तब तक करते रहना मेरा कर्तव्य है ।’’ और वह महान् सत्याग्रही पत्थर फोड़ता ही रहा ।

जेल में रहते समय एक बार उन्हें कोई गवाही देने के लिए अदालत ले जाया गया । कोई मित्र अदालत आये हुये थे । ‘‘मैं आनन्द में हूँ’’ इतना ही वे बोले । काम समाप्त होते ही पुलिस के पहरे में वे चल पडे़ । यूरोपियन बच्चे गांधीजी पर प्रेम करते थे । वे सब पीछे-पीछे आ रहे थे । लेकिन बापूजी ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा । ध्येय-सिद्धि के लिए जो महान् यज्ञ प्रज्वलित करना था, उस ओर उनकी दृष्टि थी । महात्माओं के मन के भाव कौन समझ सकता है ?