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खण्ड 5 :
ज्योति-पुरूष

50. प्रेम बनाम आदर

गांधीजी स्वतन्त्रता के हिमायती थे। लादा गया धर्म उन्हें पसन्द नहीं था । हमेशा कहते थे, मैं लोकतन्त्र का सबसे बडा़ उपासक हूँ । वास्तविक प्रेम स्वतन्त्रता देनेवाला होता है । सच्चा प्रेम कभी किसीको गुलाम नहीं बनाता । परमेश्वर का प्रेम इस तरह निरपेक्ष होता है । आप ठीक व्यवहार करेंगे, इस आशा से वह सूर्य, चन्द्र, तारे, बादल, फूल सब देता ही जाता है । महापुरूष ऐसे ही होते हैं ।

सन् 1933-34 में अस्पृश्यता-निवारण का प्रवास मध्यप्रान्त से शुरू हुआ था । महान् देशभक्त बै अभ्यंकर महात्माजी के साथ उन्हींकी मोटरगाडी़ में पूरे मध्यप्रान्त के प्रवास में रहे । बै अभ्यंकर स्पष्टवक्ता थे । उनकी भक्ति निर्भय ही थी । सच्चा प्रेम निर्भय ही होता है । जहाँ भय है, संकोच है, वहाँ प्रेम कैसा  ? बै अभ्यंकर ने गांधीजी से मोटर में जाते-जाते कहाः ‘‘आपके साथ प्रवास करना बडा़ कठिन है, दिक्कत का काम है ।’’

‘‘क्यों, क्या हुआ  ?’’ गांधीजी ने हँसते-हँसते पूछा ।

‘‘आपके साथ सिगरेट पी नहीं पाता । आपके सामने कैसे पी जाय  ? अपमान जो होगा ।’’ अभ्यंकर ने कहा ।

गांधीजी ने खुले दिल से कहाः ‘‘आप पी सकते हैं । सच, आप पीजीये ।’’

गांधीजी ने अनुमति दी । लेकिन महात्माजी के साथ जब तक वे घूमते रहे, तब तक एक भी सिगरेट उन्होंने नहीं पी ।