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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

41. चरखे के व्यामोहक डर

गांधीजी को हमेशा यही चिन्ता रहती थी कि देश के दरिद्रनारायण को पेटभर अन्न कैसे मिले । इस देश में करोंडो़ लोग बेकार हैं। उन्हें घर में ही कोई रोजगार दें, तो क्या दें ? विचार करते-करते उन्हें चरखा भगवान् के दर्शन हुए । उनके भतीजे श्री मगनलालभाई ने सब जगह घूम-घामकर गांधीजी को चरखा ला दिया । गांधीजी का पक्का विश्वास था कि देश में फिर एक बार चरखे की घर्र-घर्र सभी जगह शुरू हुए बिना निस्तार नहीं है । उससे लोगों को तत्काल रोटी दे सकते हैं, कभी आना-दो आना दे सकते हैं । वर्षा की बूँद पड़ते ही सारी धरती हरी हो जाती है, उसी तरह चरखे से थोडा़-थोडा़ मिलता जाय, तो भी घर में कुछ राहत मिल सकती है । यही सब वे सोचते थे। तब चरखा और खादी का प्रचार शुरू हुआ । उडी़सा में इतनी गरीबी है कि सचमुच जब चरखे से दो पैसे मिलने लगें तो लोगों की आँखें कृतज्ञता से भर आयीं । चरखे ने देश में कहाँ-कहाँ कितनी आशा की ज्योति जगायी है, हमें पता नहीं चलता । चरखे के और भी उपयोग हैं ही । हमारे कातने से श्रम की प्रतिष्ठा बढ़ती है । हम श्रम करनेवालों से एकरूप होते हैं । मन में निर्मलता आती है । एकाग्रता आती है । एक प्रकार का प्रशान्त आनन्द महसूस होने लगता है ।

कर्नाटक के हुबली गाँव में गांधी सेवा संघ का अधिवेशन था । उसमें गांधीजी बोलेः ‘‘मैंने अपने भगवान् का नाम चरखा रखा है ।’’ गहरा उदगार था । भारी श्रद्धा थी । ईश्वर के अनन्त नाम हैं । चरखा खाना देता है, सहारा देता है, स्वाभिमान सिखता है । इसलिए चरखा ईश्वर के महान् उपासक थे ।

एक बार बोलत-बोलते गांधीजी ने कहाः मैं कहीं इस चरखे की आसक्ति में फँस तो नहीं जाऊँगा ? कहीं ऐसा न हो जाय कि मरते समय राम-नाम के बजाय मुँह से चरखे का नाम निकल जाय ।’’

पास में ही जमनालालजी बजाज बैठे थे । बोलेः ‘‘बापू, आप चिंता न कीजिये । चरखे की फिक्र छोड़ दीजिये । उसे जनता मरने नहीं देगी ।’’

गांधीजी का स्मरण कर हम रोज कुछ कात लें तो कितना अच्छा हो। पूज्य विनोबाजी ने कहाः ‘‘महात्माजी की मूर्ति खादी में है ।’’ सच है न ?