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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

42. दुर्बलता का लाभ उठाना पाप है

पिछली बार जब गांधीजी आगाखाँ-महल में, तब उनके साथ उनके परिवार के लोग भी । सरोजिनी नायडू भी थीं । आगाखाँ-महल के चारों ओर एक बडा़ मैदान था । वहीं बापू शाम के समय घूमते थे । शुरू के कुछ दिन सुबह-शाम इस मैदान में घूमना हो इन लोगों का मनोंरजन था ।

कुछ दिनों बाद सरकार ने उसे मैदान में इन लोगों के खेलने की सुविधा कर दी । इन लोगों को बैडमिंटन बहुत था । खासकर सरोजिनीदेवी को वह खेल बहुत प्रिय था ।

खेल के सामान आये । खेल का खास स्थान छील-छालकर साफ किया गया । सारी तैयारी होने के बाद सरोजिनीदेवी खेलने के लिए मैदान में उतरी । गांधीजी हमेशा के अपने व्रत ज्यों के त्यों चला रहे थे । महल के बरामदे में सूत कातते हुए बैठे थे । उनकी दृष्टि सरोजिनीदेवी की तरफ गयी । उन्होंने कहाः

‘‘क्यों सरोजिनी ! अकेली खेलोगी ? मुझे साथ में लोगी ?’’

वे बोलीः ‘‘बापू, मुझे क्या, चाहे जब आपको ले सकती हूँ । लेकिन आप खेलना जानते तो हैं न ?’’

बापू ने कहाः ‘‘वाह ! उसमें कौन-सी बडी़ बात है ? तुम जैसा खेलोगी, वह देखकर मैं भी खेलूँगा ।’’ यह कहकर बापू सचमुच खेलने नीचे उतर आये । जिसे हमेशा यह फिक्र हो कि अपने पीछे राष्ट्र में क्या हो रहा है, वह महापुरूष खेलने आया । हो सकता है कि पिछले दिन ही इस राजनैतिक महापुरूष ने वाइसराय को कोई महत्त्वपूर्ण पत्र लिखा हो, लेकिन अब वह सारी चिन्ता, व्यवहार सब भूलकर खेल में रमने लगा ।

ज्यों ही बापू आये । सरोजिनीदेवी खेलने के लिए गेंद उठाकर आयीं तो देखती हैं, बापू बायें हाथ में रैकेट लिए खेलने की मुद्रा में खडे़ हैं । सरोजिनीदेवी खूब हँसने लगीं और बोलीः ‘‘बापू, आप यह भी नहीं जानतें कि रैकेट किस हाथ में पकड़ना है, और चले हैं खेलने ?’’

बापू ने कहाः ‘‘मेरा क्या दोष ? तुमने बायें हाथ में रैकेट लिया है, तो मैंने भी लिया । तुम जैसा करोगीं, वैसा ही मैं करूँगा ?’’

तब जाकर सरोजिनीदेवी के ध्यान में बात आयी । वे बोलीः ‘‘मेरा दाहिना हाथ दुखता है, इसलिए मैं बायें हाथ से खेलती हूँ । आप तो दायें हाथ से खेलिये ।’’

महात्माजी ने हाथ बदल लिया । गेंद इधर उड़ने लगी। इतने में सरोजिनीदेवी ने खेल रोका । पूछाः ‘‘यह क्या बापू ? फिर बायें हाथ से खेलने लगे ।’’

सचमुच बापू फिर बायें हाथ से खेल रहे थे । बोलेः

‘‘जी हाँ ! मैं तो बायें हाथ से ही खेलूँगा । वरना मैं जीत जाऊँ तो तुम कहोगी कि दायें हाथ से खेलते रहे, इसलिए जीते ।’’

गांधीजी का विनोद सुनकर खेल देखने के लिए एकत्र सारे लोग हँसने लगे । फिर खेल शुरू हुआ ।

राष्ट्र की और मानवता की चिन्ता ढोनेवाला महापुरूष अनेक बार खेल और विनोद में भी लीन हो जाता था । 75 वर्ष के इस बूढे़ में 25 वर्ष के युवक जैसा खेलने का उत्साह अक्सर दिखाई देता था ।