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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

37. वज्र से कठोर

सन् 1926 की बात है । गांधीजी साबरमती-आश्रम में रहते थे । और भारत के महान् सेवक दीनबन्धु एण्ड्रूज भी उस समय वहीं थे । दीनबन्धु का हृदय वास्तव में दया-सिन्धु था । दूसरों का दूःख देखते ही उनकी आँखें भर आती थीं । गांधीजी भी प्रेमसागर थे, लेकिन समय आने पर वे कर्तव्य-निष्ठुर हो जाते थे । कभी-कभी तो कठोरता के साथ किये गये इनकार में ही अपार करूणा होती है ।

एक बार मलाबार की ओर का एक कांग्रेस कमेटी का मन्त्री बापूजी के पास आया । उसकी कहानी बडी़ करूणाजनक थी । उसने सार्वजनिक कोष से बहुत-सा धन लोक-सेवा में ही खर्च किया । लेकिन हिसाब न रखने के कारण सारा जमा-खर्च ठीक से पेश नहीं कर सकता था । हजार-एक रूपयों की बात थी उसने अपने लिए तो एक भी पैसा खर्च किया नहीं था । लेकिन स्थानीय कार्यकारिणी समिति के लोगों ने कहाः ‘‘जमा-खर्च पेश करो, पैसे भरो ।’’

‘‘इतनी रकम कहाँ से दूँ ’’

‘‘हम क्या बतायें । सार्वजनिक पैसे का हिसाब ठीक-ठीक रहना चाहिए ।’’

‘‘बापूजी के पास जाता हूँ । वे कह दें, तब तो मानेंगे ?’’

‘‘हाँ, मान लेंगे ।’’

वह मन्त्री बापूजी के पास पहुँचा। गांधीजी के सामने सारी हकीकत रखी । उसने कहाः ‘‘बापू, मैं स्कूल की नौकरी छोड़कर सेवा के लिए अपने को समर्पित कर चुका हूँ । मैंने एक पैसा भी अपने लिए काम में नहीं लिया है ।’’

‘‘यह सच हो सकता है । लेकिन आपको पैसे भरने चाहिए । सार्वजनिक काम में व्यवस्थितता जरूरी है ।’’

‘‘लेकिन अब क्या हो ?’’

‘‘पैसा भरना ही एक उपाय हो ?’’

वह युवक रोने लगा। पास ही दीनबन्धु थे । वे दुःखी हुए । बोलेः ‘‘बापू, जो पछता रहा है, उससे इतनी कठोरता से क्यों बोलते हैं ?’’

बापू ने कहाः ‘‘पश्चाताप केवल मन में होने से क्या लाभ ? दोष का परिमार्जन हो, तो ही कहा जा सकेगा कि वास्तविक पश्चात्ताप हुआ । यह कुछ नहीं। इस युवक को अपनी भूल सुधारनी चाहिए । जनसेवा है यह ।’’