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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

38. वचन-पालन

महापुरूष सत्याव्रती होते हैं । जो वचन दिया, उसे पालते ही है । इसीलिए रामचन्द्र को हम ‘एक बात बोलनेवाला’ कहते हैं ।

‘रघुकुल रीति सदा चलि आई । प्रान जाय पर बरू बचन न जाई ।’

ऐसी थी रघुकुल की महिमा । श्री रामकृष्ण परमहंस मुँह से जो शब्द निकलता, उसे सत्य ही मानते थे । कोई कहता कि ‘दूध लीजिये’ और इनके मुँह से यदि ‘नही’ निकल पड़ता, तो परमहंस दूध लेते नहीं थे । जो शब्द उच्चारित हुआ, उसे कैसे झुठलायें ? उसे व्यर्थ कैसे होने दें ? महापुरूष ऐसी तीव्रता से सत्य की उपासना करते हैं ।

गांधीजी भी ऐसा ही कहते थे । कलकत्ते का मासिक ‘माडर्न रिव्यू’ विश्वविख्यात पत्र है । उसके सम्पादक रामानन्द चटर्जी अब संसार में नहीं हैं । उनके जीवन-काल की यह घटना है। सन् 1930 की बात है । श्री रामानन्दजी ने मासिक पत्र के लिए गांधीजी से कुछ लिखने को कहा था ।

गांधीजी ने कहाः ‘‘मुझे समय कहाँ मिलता है ?’’

‘‘चार ही पंक्ति भेजियेगा ।’’

‘‘ठीक है । कभी भिजवा दूँगा ।’’

गांधीजी के सिर पर सम्पूर्ण राष्ट्र का भार था । लाहौर की कांग्रेस हुई । स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास हुआ । गांधीजी ने वाइसराय के सामने ग्यारह माँगें रखीं, जो काफी प्रसिद्ध हैं । सरकार ने इन्कार किया । गांधीजी इस विचार में व्यस्त थे कि स्वतन्त्रता का देशव्यापी आन्दोलन शुरू किया जाय। उन्हें ‘नमक’ नजर आया । तय हुआ कि ‘नमक-कानून’ को भंग किया जाय। वे आश्रम से निकल पडे़ पैदल यात्रा, मुलाकातें, प्रार्थना सभा वगैरह खूब काम रहते थे । लेकिन उस बीच भी गांधीजी कहा करते थे किः ‘‘माँडर्न रिव्यू’ के लिए लेख भेजना तय किया है, कब समय निकालूँ ?’’  रोज उन्हें अपने वचन का स्मरण होता था । आखिर एक दिन एक छोटा-सा लेख उस राष्ट्रपुरूष ने लिख भेजा ।

उस लेख का बडा़ अजीब हाल हुआ । वह छोटा-सा लेख उस पत्रिका-कार्यालय में जाने कहाँ धरा रह गया । श्री रामानन्दजी का दुबारा पत्र आया । महात्माजी ने पत्र में लिखाः ‘‘लेख भेज दिया गया है ।’’ खोजबीन हुई, आखिर रद्दी की टोकरी में लेख पडा़ मिला। वह अमूल्य रचना मिल गयी । श्री रामानन्दजी ने महात्माजी को पत्र लिखकर क्षमायाचना की ।’’