36. भूल कबूलने की हिम्मत |
सन् 1921 में ही बारडोली का आन्दोलन होनेवाला था । लेकिन वह हुआ 1927 में । भला 1921 में क्यों नहीं हुआ ? तैयारी हो गयी थी । देशव्यापी सत्याग्रह शुरू करने से पहले महात्माजी एक तहसील में प्रयोग करनेवाले थे । वहाँ स्वराज्य की घोषणा करनेवाले थे । यह निश्चय करने वाले थे कि सरकार की हम नहीं मानेंगे । इसके लिए उन्होंने बारडोली तहसील को पसन्द किया था । देशभर में बिजली जैसा वातावरण था । ब्रिटिश हुकूमत को न मानने का समुदायिक प्रयोग ! देशबन्धु चित्तरंजन दास जेल में थे । स्वयंसेवकों का संगठन गैर कानूनी करार दिया था। हजारों युवक जेल में थे । चन्द्रशेखर आजाद को जानते हो न ? वही, जो इलाहाबाद के बगीचे में पुलिस के साथ लड़ते-लड़ते शहीद हुए थे ! यह सन् 1921 की बात है । वह केवल 15 साल का युवक था । लेकिन उसे तब कोडे़ लगाये गये । वह बालक चन्द्रशेखर प्रत्येक कोडे़ पर ‘महात्मा गांधी की जय’ गरजता था ! ऐसा वह सन् 1921 का वर्ष था । लेकिन जहाँ देशभर में बिजली का-सा वातावरण था, वहाँ युक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के चौरीचौरा नामक स्थान पर दंगे हुए । पुलिस वगैरह को जला दिया गया । लोग प्रक्षुब्ध थे और महात्माजी व्यथित । गांधीजी विशेष आग्रह के साथ कहते थे कि बारडोली का आन्दोलन यदि सफल करना है तो सारे देश को शान्त रहना चाहिए, कहीं कोई अत्याचार नहीं होना चाहिए । बारडोली-आन्दोलन के विषय में उन्होंने वाइसराय को पत्र लिखा था । लेकिन ‘चौरीचौरा की खबर मिली । गांधीजी ने आन्दोलन स्थगित कर दिया । ‘चौरीचौरा’ खतरे का संकेत है । देश शान्त नहीं रह सकता । मुझे आन्दोलन छेड़ना नहीं चाहिए । इस आशय का एक लेख गांधीजी ने लिखा। वह एक कठोर आत्म-परीक्षण था, राष्ट्र-परीक्षण था विद्दुन्मय राष्ट्र गांधीजी का निर्णय सुनकर हताश हुआ । ‘केशरी’ पत्र अपने अग्रलेख में लिखाः ‘बारडोली का वार खाली गया ।’ किसीने कहा कि देश का तेजोभंग करना पाप है। देशबन्धु जेल के अन्दर गुस्से लाल हो गये । उन्होंने इसे गांधीजी की भयंकर भूल कहा । लेकिन वह महापुरूष शान्त रहा । गांधीजी अविचलित रहे । एक बार किसी ने गांधीजी से पूछाः आपके जीवन में सबसे महत्त्व का दिन कौन-सा है ? कौन-सा दिन आपको बडा़ लगता है ?’’ उन्होंने जवाब दियाः सारे राष्ट्र के विरोध के बावजूद बारडोली का आन्दोलन जिस दिन मैंने स्थगित किया, उस दिन को मैं बडा़ मानता हूँ । पीछे हटने का वह दिवस, लेकिन वह सत्याग्रही की दृष्टि से विजय-दिवस था। वह अहिंसा की जीत थी ।’’ लोगों को वह दिन पराजय का दिन दीखता था, वही महात्माजी को विजय का दिन लगा । |