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खण्ड 4 :
सत्याग्रही
 

33. गहरा आघात

सन् 1933-34 के बीच का समय था । अस्पृश्यता-निवारण के हेतु महात्माजी का उपवास समाप्त हुआ था । उपवास के बाद बापूजी ने देशभर में प्रवास किया । वह महापुरूष सब जगह यह कहता फिरा कि अस्पृश्यता मिटाओ, मन्दिर और घर के द्वार खोल दो । महापुरूष धर्म को बार-बार निर्मल रूप देते रहते है । महात्माजी उस समय समस्या के साथ मानो तन्मय हो गये । अस्पृश्यों को उन्होंने ‘हरिजन’ नाम दिया । मानो वे कहने लगे कि वे हरि के जन हैं, प्रभु के प्यारे हैं । क्योंकि जिने मनुप्य दूर करता है, उसे ईश्वर अपनाता है

उन दिनों गांधीजी को ऐसे ही सपने आते थे कि हरिजनों के लिए अमुक मन्दिर खुल गया, अमुक कुँआ खुल गया आदि । असल में उन्हें गहरी नींद आती थी । लेकिन उनके मन में हमेशा अस्पृश्यता-निवारण ही बसा हुआ था । एक ही चिन्ता लगी थी

प्रवास करते-करते उडींसा आये । प्रसिद्ध सप्त पुरियों में से एक जगन्नाथपुरी इसी प्रान्त में है । देशभर के यात्री यहाँ आते हैं । वहाँ नौ बडे़-बडे़ हण्डों में प्रसाद चढ़ता है । जगन्नाथ का प्रसिद्ध रथ कौन नहीं जानता ? कई ऐसे भी श्रद्धालु हो गये हैं, जिन्होंने मोक्ष पाने की आशा से रथ के नीचे आकर शरीर त्यागा है । जगन्नाथपुरी के पास समुद्र भी अति सुन्दर है । नीला, गम्भीर सागर । यहीं तो बंगाल के महान् भक्त चैतन्य महाप्रभु समुद्र देखकर देह की सुध-बुध खो बैठे थे । वह नीला-नीला सागर देखकर चैतन्य को लगा कि सामने साक्षात् भगवान् कृष्ण ही हैं । और वे उसमें घुस गये । उस जगन्नाथपुरी में बापू आये

महात्माजी ने अस्पृश्यता-निवारण के सम्बन्ध में यह सन्देश दियाः ‘‘धर्म तो सबको जोड़नेवाला होता है । यदि हम अपने ही भाई-बहनों को दूर रखते हैं, तो ईश्वर भी दूर रह जाएगा । किसीको नीच न मानिये । सब प्रभु की सन्तान हैं । भेद करना पाप है । अस्पृश्यता रहती है तो सच्चा धर्म नहीं रहेगा । स्वराज्य भी नहीं होगा ।’’

महात्माजी के साथ कस्तूरबा थीं, महादेवभाई थे । सांयकालीन सभा हुई । प्रार्थना हुई । महात्माजी आराम कर रहे थे । कस्तूरबा को जगन्नाथ के दर्शन करने की इच्छा हुई । वे महादेव भाई से बोलीः

‘‘तुम चलोगे मेरे साथ ? – चलो, हम प्रभु के दर्शन कर आयें । वह पावन मन्दिर देख आयें ।’’

महादेवभाई कस्तूरबा के साथ गये । दोनों मन्दिर गये । कस्तूरबा प्रभु के आगे काफी देर खडी़ रहीं । दोनों लौट आये । महात्माजी को मालूम हुआ कि महादेव और कस्तूरबा दोनों मंदिर गये हैं । महात्माजी बेचैन हुए । उन्हें कुछ सूझता ही नहीं था दिल धड़कने लगा । बहुत अस्वस्थ हो गये

इतने में कस्तूरबा आयीं, महादेवभाई आये

‘‘तुम लोग मन्दिर कैसे गये । मैं अपने को हरिजन-अस्पृश्य मानता हूँ । जहाँ हरिजनों को मनाही है, वहाँ हम लोग कैसे जा सकते हैं ? मैं औरों को माफ कर देता, लेकिन तुम लोग तो मुझसे एक-रूप हो गये हो । तुम्हीं लोग मन्दिर हो आये । जहाँ हरिजन जा नहीं सकते, वहाँ हो आये । छिः ! मैं यह कैसे सहन करूँ ? अपनी वेदना किससे कहूँ  ? तुम लोग मन्दिर गये, तो मानो मैं ही गया । क्योंकि मेरे साथ के लोगों को देखकर ही मेरी भी परीक्षा की जाती है ।’’
      बापू से बोला नहीं जा रहा था । जोर से दिल धड़क रहा था । नाडी़ तेज चलने लगी। महादेवभाई परेशान हुए । महात्माजी के तो मानो प्राण गले में अटकने लगे । कस्तूरबा और महादेवभाई को यह कल्पना नहीं थी कि परिणाम इतना भयानक होगा । लेकिन अब क्या हो  ? डाँक्टर दौड़-धूप करने लगे । कस्तूरबा प्रार्थना करने बैठीं । महादेवभाई की जबान बन्द हो गयी ।
      धीरे-धीरे महात्माजी का मन शान्त हुआ । नाडी़ ठीक हुई । दिल की धड़कन कम हुई । वे शान्त पडे़ हुए थे । अनर्थ टल गया। जीवनदान मिला । महादेवभाई लिखते हैः ‘‘सन्तों की सेवा करना, उनके साथ रहना बहुत कठिन है । कब क्या हो जाय, कोई ठिकाना नहीं है ।’’
      महात्माजी कई मामलों में बडे़ भावुक थे ।