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खण्ड 3 :
विनम्र सेवक   
 

21. शरीर सेवा का साधन है

बापू दीखने में दूबले-पतले थे । लोग उन्हें मुट्ठीभर हड्डियों का ढाँचा कहते थे । लेकिन वे अपनी सेहत की खूब देखभाल करते थे । आहार, घूमना, मालिश, सब नियमित रूप से चलता था । शरीर सेवा का साधन है । उसे स्वच्छ और सतेज रखना हमारा कर्तव्य है । महात्मा जी दुर्बलता के पुजारी नहीं थे । कमजोरी चाहे तन की हो या मन की, उन्हें अच्छी नहीं लगती थी । खूब खाओ, खूब सेवा करो, ऐसा वे कहा करते थे ।

विनोबाजी की सेहत जरा कमजोर हो गयी थी । सन् 1940 में महात्माजी ने विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही चुना था । विनोबाजी जैसे सत्य और अहिंसा की मूर्ति आज देश में शायद ही कोई मिले । साबरमती आश्रम में सबसे पहले जो सत्यार्थी लोग आये, उनमें युवक विनोबा भी एक थे ।

सेवाग्राम में गांधीजी के पास शिकायत गयी कि विनोबाजी सेहत का ख्याल नहीं रखते हैं । एक दिन गांधीजी ने विनोबाजी से कहाः ‘‘तुम सेहत का ख्याल नहीं करते हो । तुम्हें अब मुझे अपने कब्जे में लेना होगा । तुम्हारी सेहत खूब हृष्ट-पुष्ट करनी होगी ।’’

विनोबाजी ने कहाः ‘‘मुझे तीन महीनों का मौका दीजिये । उतने में वह नहीं सुधरी, तो फिर आप अपने हाथ में लेना ।’’

विनोबाजी ने सोचा कि जिसके सिर पर हिन्दुस्तान का भार है, उसे मेरी चिंता क्यों करनी पडे़ ? और उन्होंने अपनी सेहत की ओर ध्यान देना शुरू किया । तीन महीने में 24 पौड वजन बढा़ लिया । महात्माजी को भारी खुशी हुई ।

महात्माजी को हृष्ट-पुष्ट लोगों की आवश्यकता थी । कमजोरों की नहीं । ध्यान में रखो, कमजोरी पाप है ।