उन दिनों
गांधीजी ने देशभर का दौरा बन्द कर दिया था । स्थायी रूप से सेवाग्राम
में रहने लगे थे ।
उस दिन उनका जन्म-दिन था । हम साधारण लोग अपना जन्म दिन
मिष्टात्र खाकर, नाच-गाना मनाते हैं, लेकिन आश्रम में ऐसा कुछ भी नहीं
होता था । आश्रम में जन्म-दिन का सारा कार्यक्रम बडी़ सादगी से मनाया
जाता था ।
इस वर्ष भी शाम को रोज की तरह साय-प्रार्थना के लिए लोग जमा हुए
। विशेष रूप से बनाये गये ऊँचे मंच पर गांधीजी प्रार्थना के लिए बैठे ।
न तो वहाँ कोई सजावट थी, न फूल-माला थी ।
केवल एक ऊँची जगह पर गांधीजी के सामने एक दीये में बाती
धीमें-धीमें जल रही थी । स्वयं जलकर जग को रोशनी देनेवाला वह दीया मानो
गांधीजी के जीवन का प्रतीक था ।
गांधीजी ने दीये की तरफ देखा । आँखे मीच लीं। प्रार्थना शुरू हुई
।
आज प्रार्थना के बाद गांधीजी के जन्म-दिन के निमित्त विशेष
प्रवचन होनेवाला था । गांधीजी ने प्रारम्भ में पूछाः ‘‘यह दीया किसने
जलाया ?’’
कस्तूरबा ने कहाः ‘‘मैंने ।’’
गांधीजी बोलने लगे । ‘‘आज के दिन सबसे खराब बात कोई हुई है तो वह
यह कि ‘बा’ ने आश्रम में दीया जलाया । आज मेरा जन्म दिन है, क्या इसलिए
यह दीया जलाया गया ? अपने आसपास के देहातों मे जाने पर मैं देखता हूँ
कि गाँववालों को रोटी पर लगाने के लिए तेल नहीं मिलता और आज मेरे आश्रम
में घी जलाया जा रहा है ।’’
फिर ‘बा’ को सम्बोधित करते हुए बोलेः ‘‘इतने साल तक साथ रहते हुए
तुमने यही सीखा । गाँववालों को जो चीज नहीं मिलती, उसका उपभोग हमें नहीं
करना चाहिए । मेरा जन्म-दिन है तो क्या हुआ ? जयन्ती के दिन तो
सत्कार्य करना होता है, पाप नह ।’’
भाषण समाप्त हुआ । लेकिन प्रवचन में जो उपदेश मिला, उसे ‘बा’ कभी
भूली नहीं ।
महात्माजी के मन में सदा गाँवों का ख्याल रहता था । वे मानते थे
गाँववालों का सुख ही हमारा सुख है, उनका दुःख ही हमारा दुःख है ।
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