| | |

खण्ड 2 :
राष्ट्रपिता
 

20. राष्ट्र-नेता और उसका वारिस

वे दांडी-यात्रा के दिन थे । महात्माजी पैदल जा रहे थे, जैसे रामचन्द्र की यात्रा चल रही हो । सारे राष्ट्र को स्फूर्ति मिल रही थी । राष्ट्र के जीवन में प्राण-संचार हो रहा था ।

शाम को एक गाँव में सभा हुई । प्रार्थना हुई । अब मही नदी पार कर उस पार जाना था । ज्वार का पीनी आया हो तो नाव ठेठ किनारे तक जाती । लेकिन ज्वार समाप्त होकर अब भाटे का समय हो रहा था । भाटा शुरू होने से पहले उस पार जाना था । वरना पानी कम हो जाय, तो नाव जा नहीं पाती और मही नदी के दलदल में रात के समय उस महापुरूष को पैदल जाना पड़ता ।

नाव तैयार हुई । गांधीजी नाव में बैठ, मानो निषादराज की नाव में रामचन्द्र बैठे हों । लेकिन गांधीजी के साथ जाने को मिले, इस लोभ से नाव में कितने लोग चढ़ गये । ‘ना’ किसको कहा जाय ? नाव को जल्दी-जल्दी ले जाना था । भारी नाव को खेते हुए ले जाना दूभर हो रहा था । आखिर नाव फँस गयी । पानी बहुत कम था । राष्ट्र-पुरूष हाथ में लाठी लेकर नीचे उतरा । एक-एक कदम बडी़ मुश्किल से पैर जमाते-जमाते बढ़ने लगे । मही नदी में बहुत दलदल होता है । कहीं-कहीं घुटनों से ऊपर तक था । लेकिन न थकते, न हाँफते, दृढ़ता के साथ महात्माजी जा रहे थे । उन्हें इतनी दूरी तय करने में एक घंटे से ज्यादा समय लगा ।

गांधीजी उधर पहुँचे ही होंगे कि इस किनारे पर पंडित जवाहरलाल नेहरू की मोटर आ रूकी । वे उन दिनों राष्ट्रध्यक्ष थे । महात्माजी से मिलने आये थे । गांधीजी तो उस पार चले गये । भाटा उतर गया था । नाव चलना असम्भव था ।

किसने पूछाः ‘‘पण्डितजी, क्या किया जाय ?’’

वे बोलेः ‘‘मैं पैदल जाऊँगा ।’’

‘‘बहुत दलदल है । थक जायँगे ।’’

‘‘वे बूढे़ होते हुए भी गये । मैं तो तरूण हूँ ।’’

जवाहरलालजी ने कपडे़ ऊपर किये और कीचड़ में से होकर राष्ट्र पिता से मिलने निकले । पिता को शोभा देने लायक ही वह वारिस (पुत्र) था । जाते समय नेहरू बोलेः ‘‘मैं उनसे मिलकर तुरन्त लौट आऊँगा ।’’ लेकिन उस अनन्त कीचड़ में जाने से नेहरू थक गये । गांधीजी से जा मिले । लेकिन उस रात लौट आने की हिम्मत वे कर नहीं सके । जहाँ नेहरू थक गये, वहाँ राष्ट्रपिता बिना थके गये । कहाँ से आया यह बल ? इच्छा शक्ति से ? कृत संकल्प से ?