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खण्ड 2 : राष्ट्रपिता
 

12. साइकिल की सवारी

महात्माजी का जीवन सोद्दश्य था । जो भी बातें जीवनउपयोगी थीं, उन सबकी उन्होंने उपासना की थी । वे यन्त्रों के विरोधी नहीं थे । उन्होंने कई बार कहा थाः ‘‘जिसने कपडा़ सीने की मशीन ईजाद की, उसका बहुत बडा़ उपकार है ।’’
      उन्होंने कहाः ‘‘मुझे बिजली की शक्ति चाहिए । उसे झोंपडी़-झोंपडी़ में ले जा सकूँ और वहाँ के ग्रामोद्दोगों में उसका उपयोग हो सके, तो कितना अच्छा हो।’’ उपकारक यन्त्र उन्हें चाहिए थे ।

यह कहानी तब की है, जब बापू साबरमती-आश्रम में थें । गांधीजी कुछ महत्त्व के काम के लिए आश्रम से अहमदाबाद शहर गये थे । फिर दूसरी एक जगह उन्हें किसी सभा में भी जाना था । शहर के काम में काफी समय लग गया । वे उस काम में व्यस्त थे। लम्बे डग भरते हुए वह निर्भय पुरूष, वह कर्मयोगी आ रहा था । इतने में आश्रम से एक भाई साइकिल से आ रहे थे । गांधीजी को देखते ही वह साइकिल से उतर पडे़ ।

‘‘कहाँ चले ?’’ गांधीजी ने पूछा ।

‘‘बापू, आपको उस सभा में जाना है । दस ही मिनट रह गये । मैं आपको याद दिलाने आ रहा था । न आता तो आप बाद में कहते कि क्यों नहीं बताया ?’’

‘‘वह सभा शायद आज ही तय हुई है ?’’

‘‘जी, हाँ । समय भी हो रहा है ।’’

‘‘तो फिर अपनी साइकिल दे दो ।’’

‘‘आप साइकिल से जायेंगे ? गिर पडे़ तो ? शहर में बहुत भीड़ होती है, बापू ।’’

‘‘मैने अफ्रीका में सीखा था, सो भूलने के लिए नहीं सीखा था । साइकिल चलाना सबको आना चाहिए । लाओ । वक्त खराब न करो ।’’
      यह कहकर बापू साइकिल पर चढे़ और तेजी से निकल गये । आश्रमवासी भाई देखते रह गये । साइकिल पर गांधीजी की मूर्ति आँखों के सामने आती है तो हँसी आती है न ?