| | |



खण्ड 2 : राष्ट्रपिता
 

11.निराश्रित होने का आन्नद

हरिजनों को सवर्ण हिन्दुओं से कानूनन् अलग न किया जाय, इस बात पर सन् 1932 में गांधीजी ने पूना में उपवास किया । तब पूना समझौता हुआ । फिर उन्होंने जेल से हरिजनों के सम्बन्ध में हरिजन पत्रों में लेख लिखने की अनुमति माँगी। अनुमती नहीं मिली, इसलिए उपवास शुरू किया था । उन्हें जेल से छोड़ दिया गया । लेकिन वे कानून को भंग करने निकले । क्योंकि आन्दोलन के जारी रहते वे बाहर कैसे रहते ? सरकार ने फिर पकडा़ । फिर लेख लिखने की अनुमति माँगी। फिर उपवास । सरकार तो दुराग्रही थी, जिद्दी थी, एक तरह से निर्लज्ज थी । आखिर सरकार ने जब उन्हें मुक्त किया, तब महात्मा जी ने खुद जाहिर किया किया कि ‘‘सालभर मैं समझूँगा कि जेल में ही हूँ। दूसरा राजनैतिक काम नहीं  करूँगा, केवल हरिजनों का काम करूँगा ।’’ पहले वहाँ पर्णकुटी में 21 दिन का उपवास किया और फिर हिन्दुस्तान के दौरे पर निकले । वही उनका सुप्रसिद्ध अस्पृश्यता-निवारण सम्बन्धी दौरा है । यह दौरा मध्यप्रान्त (वर्तमान मध्यप्रदेश और विदर्भ) से शुरू हुआ । ‘मध्यप्रान्त के शेर’ बैरिस्टर अभ्यंकर उनके साथ थे ।

उन दिन नागपुर में सभा थी । लोखों लोग एकत्र हुए थे । महात्माजी को थैली अर्पित की गयी । उस समय बैरिस्टर अभ्यंकर की पत्नी ने अपने शरीर से जेवर उतारकर दे दिया ।

श्री अभ्यंकर ने कहाः ‘‘बापू, ये आखिरी जेवर हैं । अब मेरी पत्नी के पास कोई जेवर बचा नहीं है ।’’ गांधीजी बोलेः ‘‘ठीक है । लेकिन अभी तक आपको रोटी की चिन्ता नहीं है न ? जिस दिन सुनूँगा कि अभ्यंकर को खाना नहीं मिल रहा है, उस दिन खुशी से नाचूँगा ।’’

बापू जिनसे प्रेम करते थे, उनसे अधिक-से-अधिक त्याग की अपेक्षा रखते थे ।