| | |



खण्ड 2 : राष्ट्रपिता
 

10. बरबादी की वेदना

हमारा देश गरीब है । कोई भी उपयोगी चीज यहाँ मुफ्त में खराब करना राष्ट्र को हानि है । उसमें भी खाने-पीने की चीजों की बरबादी तो पाप ही है । पहले के लोग चावल या दाल का दाना भी सड़क पर पडा़ दीखता, तो उसे बीन लेते थे ।

सन् 1930 का समय था । महात्माजी की वह इतिहास-प्रसिद्ध दाण्डी-यात्रा शुरू हुई थी । 80 सत्याग्रहियों को लेकर सत्याग्रह का सन्देश देते हुए महापुरूष पैदल चल पडा़ था । समुद्र के किनारे दाण्डी के पास जाकर महात्माजी सत्याग्रह करनेवाले थे । नमक हाथ में लेकर कहनेवाले थे कि रावण-राज्य को समुद्र में डुबोता हूँ । महात्मा का वह पैदल प्रवास यानी एक महान् राष्ट्रीय यात्रा ही थी । वे जहाँ पहुँचते, वहाँ हजारों लोग एकत्र होते और उनका सन्देश सुनते । देशी-विदेशी पत्रकारों की भीड़ लगी रहती थी । वह एक पावन दृश्य होता था ।

गरमी के दिन थे । तरबूजों और खरबूजों का मौसम था । एक पडा़व पर लोग गाड़ियों में भर-भरकर तरबूज और खरबूजे लाये थे । वे इतने थे कि खाये नहीं जा सकते थे । महात्माजी के साथ के लोग खाते तो कितना खाते? फल वहाँ बरबाद हो रहे थे । कोई आधा ही खाकर फेक देता था । उस बढ़िया रसीले फल की यह हालत हो रही थी ।

महात्माजी ने वह दृश्य देखा । वह, बरबादी देखकर उन्हें दुःख हुआ । वे गम्भीर हो गये । उनके प्रवचन का समय आया । हजारों स्त्री-पुरूष बापू की पावन वाणी सुनने, स्वतन्त्रता की अमर पुकार सुनने वहाँ इकटठा हुए थे । महात्माजी मंच पर बैठे । आज वे क्या कह रहे है, सुनियेः ‘‘मैंने हिन्दुस्तान के वाइसराय को पत्र लिखा है कि जनता की आमदनी जब प्रतिदिन दो आना है, तब आपका रोजाना सात सौ रूपये वेतन लेना ठीक नहीं है । यहाँ तो एक रूपये में आठ लोग की गुजर होती है । आपके साथ सौ रूपयों में कम-से-कम 5-6 हजार लोगों का पेट भरेगा । यानी आप 5-6 हजार लोगों का खाना छीनते हैं । मैंने वाइस-राय के पास देश की गरीबी की बात कही । उनकी फिजूलखर्ची की आलोचना की । लेकिन यहाँ क्या देखता हूँ ? सैकडो़ फल बरबाद हुए । साथियों के लिए फल लाना था तो थोडे़ से लाते । लेकिन गाडी़ भर-भरकर लाये । अब मैं वाइसराय की आलोचना किस मुँह से करूँ ? यों फिजूल खर्च करना पाप है । आधा लोगों ने मेरा सिर नीचा कर दिया । देश में एक तरफ भुखमरी है, आधा पेट खाकर जीनेवाले लोग हैं और यहाँ मेरी स्वतन्त्रय-यात्रा में इस तरह की बरबादी होती है । अपनी वेदना मैं कैसे व्यक्त करूँ ? फिर से ऐसा पाप नहीं करना ।’’

उस प्रवचन को सारे लोग सिर झुकाकर सुनते बैठे थे । अनेक लोगों की आँखों में आँसू छलक आये थे । महात्माजी के एक-एक शब्द में उनकी दुखी आत्मा प्रकट हो रही थी । उस दिन का भीषण जिन्होंने सुना, वे कभी उसे भूल नहीं सकते । वह ऐसी अमर और उदबोधक वाणी थी ।