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शांतिसेना की मेरी कल्पना

गांधीजी

कुछ समय पहले मैंने स्वयंसेवकों की एक सेना बनाने का प्रस्ताव रखा था, जो दंगा-फसाद, खास करके सांप्रदायिक दंगों को शांत करने में अपने प्राणों तक की बाजी लगा दें। इसके पीछे विचार यह था कि यह सेना पुलिस का ही नहीं, बल्कि फौज तक का स्थान ले ले। यह बात शायद असंभव-सी मालूम पडती हो। फिर भी हमें अपनी आजादी की अहिंसक लडाई में सफलता प्राप्त करनी हो, तो उसे ऐसी परिस्थितियों का शांतिपूर्वक मुकाबला करने की अपनी शक्ति बढानी ही चाहिए।

शांतिसेना की हमने जो कल्पना की है, उसके सदस्य, चाहे पुरुष हो या स्त्री, उसका अहिंसा में जीवित विश्वास होना चाहिए। यह तभी संभव है जब कि ईश्वर में उसका जीवित विश्वास हो। अहिंसक व्यक्ति तो ईश्वर की कृपा के बिना कुछ कर ही नहीं सकता। इसके बिना उसमें क्रोध, भय और बदले की भावना न रखते हुए मर जाने का साहस नहीं आयेगा। ऐसा साहस तो इस श्रद्धा से ही आता है कि सबके हृदय में ईश्वर का निवास है और ईश्वर की उपस्थिती में किसी भी प्रकार का भय बचता नहीं है। ईश्वर की सर्वव्यापकता के ज्ञान का यह भी अर्थ है कि जिन्हें विरोधी या गुंडे कहे जा सकते हैं, उनके प्राणों का भी हम खयाल रखें। यह विचारपूर्वक किया जानेवाला हस्तक्षेप उस समय मनुष्य के क्रोध को शांत करने का एक तरीका है, जब कि उसके अंदर का पशुभाव उस पर हावी हो रहा हो।

शांति के इस दूत में दुनिया के सभी धर्मों के प्रति समान श्रद्धा होना जरूरी है। और इस वास्ते देश में माने जानेवाले धर्मों के सामान्य सिद्धांतों का उसे ज्ञान होना चाहिए।

शांतिसैनिक व्यक्तिगत सेवा द्वारा अपने कार्यक्षेत्र में लोगों के साथ ऐसे संबंध स्थापित करेगा,  जिससे उसे विपरीत परिस्थितियों में जब काम करना पडे तब उपद्रवकारियों के लिए वह बिलकुल ऐसा अजनबी न हो, जिस पर वे शंका करें या जो उन्हें नागवार मालूम पडे। यह कहने की जरूरत नहीं कि शांति के लिए काम करनेवाले स्वयंसेवक का चरित्र ऐसा होना चाहिए, जिस पर कोई उंगुली न उठा सके और वह अपनी निष्पक्षता के लिए प्रसिद्ध हो।

आमतौर पर शांति का यह काम केवल स्थानीय लोगों द्वारा अपने-अपने मुहल्लों में ही किया जा सकता है। कल्पना यह है कि जीवन के विविध कार्यों में लगे हुए समाज के सज्जन स्त्री-पुरुषों के साथ शांतिसैनिक का व्यापक मैत्री संबंध होना चाहिए। फिर इमरजन्सी के समय ये लोग शांतिसेना की मदद में दौडे आयेंगे।

कुछ समय पहले मेरे सुझाने से शांतिदल कायम करने की कोशिश हुई थी। तब ध्यान में आया कि शांतिदल बडे पैमाने पर काम नहीं कर सकते। वह छोटे-छोटे ही होंगे। मतलब यह कि जो परस्पर जाने-पहचाने लोग हैं, उन्हीं की टुकडियां बनेंगी। वे मिलकर अपना एक मुखिया चुन लेंगे। सबका दर्जा बराबर होगा। जहां एक से ज्यादा आदमी एक ही तरह का काम करते हैं, वहां उनमें एकाध ऐसा होना चाहिए, जिसके हुक्म के मुताबिक सब कोई चल सकें। ऐसा न हो और सब अपनी-अपनी मरजी से काम करें, तो मुमकिन है कि उनके काम की दिशा एक-दूसरे से उलटी हो।

ईश्वर की शक्ति ही काम कर रही है, ऐसा जो भरोसा रखता है, ऐसा आदमी किसी को मारेगा नहीं, बल्कि खुद मरकर मृत्यु को जीतेगा और जी जायेगा। ऐसे आदमी को समय अनुसार बुद्धि भी अपनेआप सूझती रहेगी, फिर भी अपने अनुभव से मैं कुछ नियम यहां देता हूं ।

  1. शांतिसेना के सदस्यों की एक खास पोशाक होनी चाहिए, जिससे कालांतर में उन्हें बिना किसी कठिनाई के पहचाना जा सके।

  2. शांतिसैनिक अपने साथ कोई भी हथियार न रखे।

  3. घायलों की सार-संभाल के लिए उसके पास प्राथमिक उपचार-सामग्री रहनी चाहिए।

  4. शांतिसैनिकों को ऐसी तालीम मिलनी चाहिए, जिससे वह घायलों को आसानी से उठाकर ले जा सके।

  5. जलती आग को बुझाने की, बिना झुलसे आगवाली जगह में जाने की, ऊपर चढ़ने-उतरने की कला सीखनी चाहिए।

  6. और यह सब करते हुए रामनाम का बराबर जप मनमें करते रहना चाहिए। कुछ लोग समझते हैं कि ईश्वर तो है ही और बिना मांगे मदद करता है; फिर उसका नाम रटने से क्या फायदा? हम ईश्वर की हस्ती को स्वीकार करें या न करें, इससे उसकी हस्ती में कोई कमबेशी नहीं होती, यह सच है। फिर भी उस हस्ती का उपयोग अभ्यासी ही कर पाता है। यदि भौतिक शास्त्र के लिए भी यह बात सौ फीसदी सच है तो फिर अध्यात्म के लिए तो यह उससे भी ज्यादा सच होनी चाहिए। और सेवक में इस सचाई को अपने जीवन में सिद्ध करने की ताकत होनी चाहिए।

स्त्रोत : मैत्री,  जनवरी  2009

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