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करेंगे या मरेंगे

गांधीजी

बहुत बड़ा अंतर था- ‘करेंगे या मरेंगे’ तथा ‘करो या मरो’ में। इसे विस्तार से समझाने की भी जरूरत नहीं है। 8 अगस्त 1942 को गांधीजी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में दो बार बोले हैं। पहले कुछ देर हिन्दी में और फिर अंग्रेजी में। देश की आजादी के संग्राम का या एक निर्णायक क्षण था- फिर भी मूल भाषण उपलब्ध नहीं हो पाया। 1942 के बाद आज तक उस मूल हिन्दी का अंग्रेजी और उस अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद ही चलता रहा है। इसी अनुवाद में ‘करेंगे या मरेंगे’ जैसे सुंदर आत्मीय, दृढ़ संकल्प का ‘करो या मरो’ जैसा कठोर, आदेशनुमा अनुवाद चलता रहा है। इन दोनों भाषणों के कुछ ही घंटे बाद अगले दिन, अगस्त की सुबह पांच बजे अपनी गिरपतारी से ठीक पहले देश के नाम दिए गए संदेश के नीचे गांधीजी ने हाथ से हिन्दी में लिख दिया था ‘करेंगें या मरेंगें’। उन भाषणों के ये अंश हमें बताते हैं कि गांधीजी ने पूरे देश को, समाज के हर अंग को संबोधित करते हुए उसके साथ ही सारी योजना बनाने के बाद ही  नारा दिया था ‘करेंगे या मरेंगें’।

        पिछले बीस वर्षो से हम यही सीखने की कोशिश करते आए हैं कि हमारे समर्थकों की संख्या बहुत कम हो और लोग हमारी हंसी उड़ाएं, तब भी हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। हमने अपने विश्वासों पर दृढ़ रहना सीखा है- यह मानते हुए कि हमारे विश्वास ठीक हैं। यह उचित ही है कि हम अपने विश्वासों के अनुसार काम करने का साहस पैदा करें, क्योंकि ऐसा करने से आदमी का चरित्र ऊंचा होता है और उसका नैतिक स्तर ऊंचा होता है।

कांग्रेस को अपने फैसले मानवाने के लिए नैतिक अधिकार के सिवाय कोई अधिकार नहीं है। कांग्रेस का विश्वास है कि सच्चा लोकतंत्र अहिंसा से ही स्थापित हो सकता हे। विश्व-संघ की इमारत अहिंसा की नींव पर ही खड़ी की जा सकती है और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में हिंसा का सर्वथा त्याग करना जरूरी है। अगर यह सच है तो हिंदू-मुस्लिम सवाल भी हिंसा के द्वारा हल नहीं किया जा सकता। अगर हिंदू मुसलमानें पर अत्याचार करें तो वे किस मुंह से विश्व-संघ की बात कर सकते हैं? इसी कारण मैं अंग्रेज और अमेरिकी राजनीतिज्ञों की भांति हिंसा के द्वारा विश्व-शांति की स्थापना की संभावना में विश्वास नहीं करता कांग्रेंस ने सारे मतभेंदों को एक निष्पक्ष अंतर्राष्ट्रीय अदालत के सामने रखने और उसके फैसले पर अमल करने की बात मान ली है। अगर यह उत्यांत न्यायसंगत सुझाव स्वीकार नहीं किया जा सकता तो फिर केवल तलवार और हिंसा का रास्ता ही रह जाता है। मैं असंभव बात मानने को कैसे तैयार हो सकता हूं?

एक सजीव वस्तु के टुकड़े करने की मांग करने का मतलब है उसकी जान मांगना। यह तो लड़ाई करने की मांग करने का मतलब है उसकी जान मांगना। यह तो लड़ाई की ललकार है। कांग्रेस ऐसी लड़ाई में शामिल नहीं हो सकती जिसमें भाई-भाई को मारे। हो सकता है कि डॉ. मुंजे और श्री सावरकर की तरह तलवाल के सिध्दांत को मानने वाले हिन्दू मुसलमानों को अपने अधीन रखना चाहें। मैं उस वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता।

        मेरे दिल में बहुत-से विचार उठ रहे हैं। उन्हें मैं इस सभा के सामने रख देना चाहूंगा। जो बात मेरे दिल में सबसे पहले उठी वह तो मैंने कह दी है। मैं आपसे सच कहता हूं कि मेरे लिए यह जिंदगी और मौत का सवाल है। अगर हम हिंदू और मुसलमान ऐसी दिली एकता स्थापित करना चाहते हैं जिसमें  किसी के मन में कहीं कोई दुराव न हो तो हमें पहले इस साम्राज्य की बेडियों से आजाद होने के लिए मिलकर कोशिश करनी होगी। अगर आखिरकार भारत के ही एक अंग को पाकिस्तान बनना है तो मुसलमानों को भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल होने में क्या एतराज हो सकता है? इसलिए हिंदुओं और मुसलमानों को चाहिए कि पहले वे आजादी की लड़ाई के लिए इकट्ठे हो जाएं।

इसलिए मैं कहता हूं कि अगर हो सके तो आजादी फौरन दे दी जाए-आज रात को ही, कल पौ फटने से पहले ही। अब आजादी के लिए सांप्रदायिक एकता की स्थापना तक इंतजार नहीं किया जा सकता। अगर एकता स्थापित नहीं होती तो आजादी के लिए बहुत ज्यादा कुर्बनियां करनी पड़ेंगी बनिस्बत उस सूरत के जब कि एकता स्थापित हो जाए। लेकिन कांग्रेस या तो आजादी हासिल करेगी या उस कोशिश में मिट जाएगी। और यह मत भूलिए कि कांग्रेस जिस आजादी के लिए लड़ रही है वह सिर्फ कांग्रेसियों के लिए ही नहीं होगी,वह तो भारत के सभी चालीस करोड़  लोगों के लिए होगी। कांग्रेसजनों को सदा जनता के विनीत सेवक बनकर रहना चाहिए।

कायदे-आजम ने कहा कि चूंकि अंग्रेजें ने साम्राज्य मुसलमानों के हाथ से लिया था इसलिए अगर वे अब मुस्लिम लीग को शासन सौंपना चाहे तो लीग शासन संभालने को तैयार है। लेकिन वह तो मुस्लिम राज होगा। मौलना साहब और मैंने जो पेशकश ही है उसका मतलब मुस्लिम राज या मुस्लिम प्रभुत्व नहीं है। कांग्रेस किसी वर्ग या संप्रदाय के प्रभुत्व को ठीक नहीं समझती। वह लोकतंत्र में विश्वास करती है, जिसके दायरे में मुसलमान, हिन्दू, ईसाई, पारसी,यहूदी-इस विशाल देश में रहने वाले सभी संप्रदाय-आ जाते हैं। यदि मुस्लिम राज अनिवार्य हो तो होने दीजिए, लेकिन हम उस पर अपनी स्वीकृति की मोहर कैसे लगा सकते हैं? हम एक संप्रदाय पर दूसरों के प्रभुत्व की बात कैसे मान सकते हैं?

इस देश के करोड़ों मुसलमान हिंदुओ के वंशज हैं। उनका वतन भारत के सिवाय कोई दूसरा कैसे हो सकता हे? कुछ वर्ष हुए, मेरा सबसे बड़ा लड़का मुसलमान बन गया। उसकी मातृभूमि क्या होगी? पोरबंदर या पंजाब? मैं मुसलमानों से पूछता हूं : अगर हिन्दुस्तान आपका वतन नहीं है तो आप किस मुल्क के हैं? किस अलग  वतन में आप मेरे उस बेटे को रखेंगे जिसने इस्लाम ग्रहण कर लिया था? उसके मुसलमान बन जाने के बाद उसकी मां ने उसे लिखा और पूछा कि क्या उसने इस्लाम ग्रहण करने बाद शराब पीना छोड़ दिया है, जिसकी इस्लाम मुसलमानों को मनाही करता है? जो लोग उसके धर्म-परिवर्तन पर खुश हो रहे थे, उन्हें उसने लिखाः `मुझे उसका मुलमान बनना इतना नहीं खलता जितना कि उसका शराब पीना। क्या नेक मुसलमान होने के नाते आप यह गवारा कर सकते हैं कि वह मुसलमान बनने के बाद भी शराब पिए? शराब पी-पीकर वह आवारा और लुच्चा हो गया है। अगर आप उसे फिर इंसान बना दें तो उसका धर्म बदलना उपयोगी रहेगा। इसिलिए कृपया आप इस बात का ख्याल रखिए कि वह मुसलमान होने के नाते शराब और औरतों से परहेज करे। अगर ऐसा परिवर्तन नहीं होता तो उसका धर्म-परिवर्तन बेकार होगा और उसके साथ हमारा असहयोग जारी रहेगा।

मुस्लिम लीग और अंग्रेजों द्वारा विरोध किए जाने के कारण इस बार हमें अपने संघर्ष के सिलसिले में बहुत ज्यादा कुर्बानियां करनी पड़ेंगी। आपने सर फेडरिक पकल का गुप्त परिपत्र देखा है। उन्होंने आत्मघाती तरीका अख्तियार किया है। परिपत्र में बरसात में मेंढकों की तरह पैदा होने वाली संस्थाओं को खुल्लमखुल्ला शह दी गई है कि वे मिलकर कांग्रेस का विरोध करें। इसका मतलब है कि हमें साम्राज्य से निपटाना है जो सदा टेढ़ी चाल चलता है। हमारा रास्ता सीधा है, जिस पर हम आंखें मूंदकर भी चल सकते हैं। यह सत्याग्रह की खूबी है। सत्याग्रह में धोखे, जालसाजी या किसी प्रकार के झूठ के लिए जगह नहीं है। धोखा और झूठ आज दुनिया पर छा गए हैं। मैं ऐसी स्थिति को चुपचाप बैठा नहीं देख सकता। मैं सारे भारत में इतना अधिक घूमा-फिरा हूं जितना कि वर्त्तमान युग में शायद कोई भी नहीं घूमा-फिरा होगा। देश के करोड़ों बेजबान लोगों ने मुझे अपना मित्र और प्रतिनिधि पाया और मैं  भी उनसे मिलकर उस हद तक एक हो गया, जिस हद तक कि किसी आदमी के लिए ऐसा मरना संभव है। मैंने देखा कि वे मुझ पर विश्वास करते हैं और अब मैं झूठ और हिंसा पर खड़े इस साम्राज्य का मुकाबला करने के लिए उनके विश्वास का उपयोग करना चाहता हूं। साम्रज्य ने चाहे कितनी ही लंबी-चौड़ी तैयारियां क्यों न कर रखी हों, हमें उसके शिकंजे से निकलना है। यह कैसे हो सकता है कि मैं इस महत्त्वपूर्ण घड़ी में चुप बैठा रहूं और सही रास्ता न दिखाऊ?

यह एक छोटा-सा मंत्र मैं आपको देता हूं। आप इसे अपने हृदय-पटल पर अंकित कर लीजिए और हर श्वास के साथ उसका जाप किया कीजिए। वह मंत्र हैः ‘करेंगे या मरेंगे।’ या तो हम भारत को आजाद करेंगे या आजादी की कोशिश में प्राण दे देंगे। हम अपनी आंखों से अपने देश का सदा गुलाम और परतंत्र बना रहना नहीं देखेंगे। प्रत्येक सच्चा कांग्रेसी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस दृढ़ निश्चय से संघर्ष में शामिल होगा कि वह देश को बंधन और दासता में बने रहने को देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेगा। ऐसी हमारी प्रतिज्ञा होनी चाहिए। जेल का ख्याल मन में न लाइए। अगर सरकार मुझे कैद न करे तो मैं आपको जेल भरने का कष्ट नहीं दूंगा। ऐसे समय में जब कि सरकार खुद मुसीबत में फंसी हैं, मैं उस पर भारी  संख्या में कैदियों के प्रबंध का बोझ नहीं डालूंगा। अब से हर पुरुष और हर स्त्री को अपने जीवन का हर क्षण यह जानते हुए बिताना हे कि वे स्वतंत्रता की खातिर खा रहे हैं और जी रहे हैं, और अगर जरुरत हुई तो वे उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्राण दे देंगे। ईश्वर को और आपने अंतकरण को साक्षी मानकर यह प्रण कीजिए कि जब तक आजादी नहीं मिलती तब तक हम दम नहीं लेंगे और आजादी लेने के लिए अपनी जान देने को भी तैयार रहेंगे। जो जान देगा उसे जीवन मिलेगा और जो अपनी जान बचाएगा वह जीवन से वंचित हो जाएगा। स्वतंत्रता कायर को या डरपोक को नहीं मिलती।

अब मैं पत्रकारों से दो शब्द कहूंगा। आपने राष्ट्रीय मांग का अब तक जो समर्थन किया है उसके लिए मैं आपको बधाई देता हूं। आपको जिन पाबंदियों और बंधनों में रहकर काम करना पड़ता है, उन्हें मैं जानता हूं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि आप उन जंजीरों को तोड़ डालिए जिनमें आप जकड़े हुए हैं। समाचारपत्रों को आजादी का रास्ता दिखाने और आजादी के लिए जान देने का उदाहरण प्रस्तुत करने का गौरवमय सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए। आपके हाथ में कलम है, जिसे सरकार नहीं रोक सकती। मैं जानता हूं कि छापखाने आदि के रूप में आपके पास बड़ी-बड़ी जायदादें हैं और आपको डर होगा कि सरकार कहीं उन्हें जब्त न कर ले। मैं आपसे नहीं कहता कि आप जान-बूझकर ऐसी बात करें जिससे कि आपका छापाखाना जब्त कर लिया जाए। जहां तक मेरा सवाल है, मैं अपनी कलम को नहीं रोकूंगा, चाहे मेरा छापाखाना जब्त ही क्यों न हो जाए। जैसा कि आप जानते हैं, एक बार मेरा छापाखाना जब्त कर लिया गया था और बाद में मुझे लौटा दिया गया था। लेकिन मैं आपसे ऐसी बडी कुर्बानी करने को नहीं कहूंगा। मैं एक बीच का रास्ता बताता हूं। आप ऐलान कर सकते हैं कि वर्त्तमान पाबांदियों के रहते आप लिखना छोड़ देंगे और तभी कलम को हाथ लगाएंगे जब भारत स्वतंत्र हो जाएगा।

राजाओं के प्रति उचित आदर प्रकट करते हुए मैं एक छोटी-सी विनती करूंगा। मैं राजाओं का हितैषी हूं। मेरा जन्म एक रियासत में हुआ था। मेरे दादाजी अपनी रियासत के नरेश के सिवाय किसी दूसरे नरेश को दाहिने  हाथ से सलाम नहीं करते थे। लेकिन उन्होंने अपने नरेश से कभी यह नहीं कहा-जैसाकि मेरे ख्याल से उन्हें कह देना चाहिए था-कि उनका अपना मालिक भी उन्हें-अर्थात् अपने मंत्री को- अपने अंतकरण की आवाज के विरुध्द काम करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। मैंने नरेशों का नमक खाया है और मैं नमकहरामी नहीं करूंगा। एक वफादार सेवक के नाते मेरा यह कर्त्तव्य है कि नरेशों को सचत्sा कर दूं कि अगर वे मेरे जीते-जी कुछ कर दिखाएंगे तो हो सकता है कि स्वतंत्र भारत में उन्हें सम्मानपूर्ण स्थान मिले। जवाहरलाल ने स्वतंत्र भारत की जो योजना बनाई है। उसमें विशेषाधिकारो या विशेषाधिकार-संपन्न वर्गों के लिए कोई जगह नहीं है। जवाहरलाल के विचारों में सब संपत्ति सरकार की मिल्कियत होनी चाहिए। वे योजना-बध्द अर्थ-व्यवस्था चाहते हैं। वे योजना के अनुसार भारत का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं। वे उड़ना पसंद करते हैं, मैं नहीं पसंद करता। मैंने अपनी कल्पना के भारत में नरेशों और जमींदारों के लिए स्थान रखा है। मैं  नरेंशों से नम्रतापूर्वक कहूंगा कि वे त्याग की भावना से उपभोग करें। वे जायदाद पर अपनी मिल्कियत छोड़ दें और सच्चे अर्थों में उसके न्यासी बन जाएं। मुझे जनता में जनार्दन का रूप दिखाई देता है। नरेश अपनी प्रजा से कह सकते हैः आप रियासत के मालिक और स्वामी हैं और हम आपके सेवक हैं। मैं नरेशों से कहूंगा कि वे जनता के सेवक बन जाएं और बताएं कि उन्होंने जनता की क्या सेवा की है। साम्राज्य ने भी नरेशों को कुछ अधिकार प्रदान किए हैं, परंतु बेहतर होगा कि वे ऐसे अधिकार अपनी प्रजा से प्राप्त करें । अगर वे छोटी-मोटी सुख-सुविधा का उपभोग करना चाहें तो वे अपनी प्रजा के सेवक के रूप में ऐसा करें।

कोई भी काम गुप्त रूप से नहीं करना चाहिए। यह एक खुली बगावत है। इस संघर्ष में गुप्त रूप से काम करना पाप है। स्वतंत्र आदमी किसी गुप्त आंदोलन में शामिल नहीं होता। संभव है कि स्वतंत्र होने के बाद आप मेरी सलाह के विरुध्द अपनी खुफिया पुलिस रखें। लेकिन वर्तमान संघर्ष में हमें खुल्लमखुल्ला कार्यवाही करनी है और अपनी छाती पर गोलियां खानी हैं और भागना नहीं है।

सरकारी कर्मचारियों से भी मुझे दो शब्द कहने हैं। अगर वे चाहें तो अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा न दें। स्वर्गीय न्यायमूर्ति रानडे ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया था, परंतु उन्होंने खुल्लमखुल्ला ऐलान किया था कि मैं कांग्रेसी हूं। उन्होंने सरकार से कहा कि यद्यपि मैं न्यायाधीश हूं, लेकिन मैं कांग्रेसी हूं और प्रकट रूप से कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लूंगा, परंतु मेरे राजनीतिक विचार न्यायाधीश की हैसियत से मेरी निष्पक्षता पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।

वर्त्तमान कार्यक्रम सैनिकों के लिए भी है। मैं उनसे अभी यह नहीं कहता कि आप अपने पदों से इस्तीफा दे दें और सेना से अलग हो जाएं। सैनिक मेरे पास, जवाहरलाल के पास और मौलाना के पास आते हैं और कहते हैः “हम पूरी तरह आपके साथ हैं। हम सरकार हे अत्याचार से तंग आ चुके हैं।” इन सैनिकों से मैं कहूंगाः “आप सरकार को बता दीजिए कि ‘हमारे दिल कांग्रेस के साथ हैं। हम अपनी नौकरी नहीं छोडेंगे। जब तक आप हमें वेतन देते रहेंगे हम आपकी नौकरी करते रहेंगे। हम आपके उचित हुक्म को मानेंगे, लेकिन अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर देंगे।”

जिनमें इतना भी करने की हिम्मत नहीं है, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है। वे अपनी राह चलेंगे। लेकिन अगर आप इतना ही कर सकें तो विश्वास कीजिए कि सारे वातावरण में बिजली-सी दौड़ जाएगी तब फिर अगर सरकार चाहे तो बमों की वर्षा कर ले। लेकिन तब दुनिया की कोई ताकत आपको क्षण-भर भी गुलाम नहीं बनाए रख सकेगी।

अगर विद्यार्थी थोड़ी देर संघर्ष में शामिल होकर फिर वापस स्कूलों-कालेजों में चले जाना चाहते हों तो मैं उनसे संघर्ष में शामिल होने को नहीं कहूंगा। अलबत्ता, फिलहाल जब तक मैं संघर्ष का कार्यक्रम तैयार नहीं कर लेता तब तक मैं विद्यार्थियों से कहूंगा कि वे अपने प्रोफेसरों से कहेः ‘ हम कांग्रेस के हैं। आप सरकार के हैं या कांग्रेस के? अगर आप कांग्रेसी हैं तो अपको नौकरी छोड़ने की जरूरत नहीं है। आप अपने पदों पर बने रहिए, लेकिन हमें पाठ पढ़ाइए और आजादी का रास्ता दिखाइए।` दुनिया-भर में हर जगह स्वतत्रता के संघर्ष में विद्यार्थियों ने बहुत बड़ा योग दिया है।

अभी और वास्तविक संघर्ष छिड़ने की घड़ी के बीच जो समय हमें मिलेगा, अगर इस बीच आप जो-कुछ थोड़ा मैंने सुझाया है उतना ही करें तो आप वातावरण ही बदल देंगे और अगले कदम का मार्ग प्रशस्त कर देंगे।

जो बात मेरी आत्मा को कचोट रही थी, उसे जिन लोगों की सेवा का सौभाग्य मुझे अभी मिला था, उनके सम्मुख रखने में मैंने बहुत समय ले लिया है। मुझे उन लोगों का नेता अथवा सेना की भाषा की भाषा में कहें तो, सेनापति कहा जाता है। लेकिन मैं अपनी स्थिति को उस दृष्टि से नहीं देखता। किसी पर हुक्म चालाने के लिए मेरे पास पेम के अलावा और कोई अस्त्र नहीं है। हां, मेरे पास एक छड़ी जरूर है, जिसे आप एक झटके से ही तोड़ सकते हैं। वह तो मेरी टेकनी है जिसके सहारे मैं चलता हूं। ऐसे अपंग व्यक्ति से जब सबसे बड़े काम की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जाए तो उसे खुशी महसूस नहीं हो सकती। आप उसमें मेरा हाथ केवल तभी बंटा सकते हैं जब मैं आपके सामने आपके सेनापति के रूप में नहीं, बल्कि एक विनम्र सेवक  के रूप में आऊं। और जो सबसे अच्छी सेवा करता है वही बराबर की हैसियत वालों में प्रमुख हो जाता है।

इसलिए मेरे हृदय में जो विचार उठ रहे थे उनको मुझे आपके सम्मुख रखना ही था और आपको, जहां तक बन सके वहां तक, संक्षेप में यह बताना था कि मैं आपसे सबसे पहले क्या करने की अपेक्षा रखता हूं।

मैं आपको पहले ही बता दूं कि असली लड़ाई आज से शुरू नहीं होती। मुझे हमेशा की तरह, अभी बहुत सारी औरपचारिकताएं निभानी हैं। बोझ लगभग असहनीय है और मुझे उन लोगों को समझाने-बुझाने की कोशिश जारी रखनी है जिनमें फिलहाल मेरी कोई साख नहीं रही है। मुझे मालूम है कि पिछले कुछ हपतों के दौरान मैं अपने बहुत सारे मित्रों में अपनी साख गंवा बैठा हूं, यहां तक कि उनमें से कुछ तो न केवल मेरे विवेक पर बल्कि मेरी ईमानदारी पर भी शक करने लगे हैं। जहां तक मेरे विवेक का सवाल है, मैं यह मानता हूं कि यह कोई ऐसी अमूल्य वस्तु नहीं है जिसके चले जाने से मुझे बहुत ज्यादा दुख हो, लेकिन ईमानदारी एक ऐसी अमूल्य  वस्तु नहीं है जिसके चले जाने से मुझे बहुत ज्यादा दुख हो, लेकिन ईमानदारी एक ऐसी अमूल्य निधि है, जिसकी क्षति को मैं कदापि सहन नहीं कर सकता।

लॉर्ड लिनलिथगो मेरे अच्छे मित्र रहे है। आज भी वे मेरे मित्र हैं। वह ऐसी मित्रता है जो सरकारी काम-काज के सिलसिले में स्थापित संबंध खत्म हो जाने के बाद भी कायम है। लॉर्ड लिनलिथगो मेरी इस बात की पुष्टि करेंगे अथवा नहीं, सो मैं नहीं जानता। लेकिन वे और मैं, दोंनों एक व्यक्तिगत बंधन में बंध गए हैं। एक बार उन्होंने मेरा परिचय अपनी बेटी से करवाया था। उनके दामाद, जो उनके अंगरक्षक हैं, मेरी ओर आकर्षित हुए थे। उनका मुझसे भी अधिक महादेव से पेम हो गया और वे तथा लेडी एन मेरे यहां आए थे। लेडी एन लॉर्ड लिनलिथगो की आज्ञाकारिणी और प्यारी बेटी हैं। उनकी भलाई में मेरी रुचि है। मैं आपको यह रुचिर प्रसंग इसलिए बता रहा हूं जिससे आपको इस बात का अच्छी तरह से अंदाज हो जाए कि हममें आपस में कैसे ताल्लुकात हैं। फिर भी यहां मैं यह बता दूं कि साम्राज्य के प्रतिनिधि के रूप में यदि मुझे दुर्भाग्यवश लॉर्ड लिनलिथगो के विरुध्द कड़ा संघर्ष छ़ेडना पड़ा तो उसमें उन ताल्लुकात से कोई अंतर नहीं आएगा। मुझे ऐसा लगता है कि इस साम्राज्य की ताकत का मुझे करोड़ों मूक लोगों की ताकत से मुकाबला करना होगा-और इस संघर्ष में सिवाय इसके और कोई सीमा नहीं होगी कि हमें अहिंसा की नीति का अनुसरण करना है।

जिन बाइसराय के साथ मेरे इतने मधुर संबंध हैं, उनके विरुध्द संघर्ष छेड़ना अत्यंत कष्टदायक कार्य है। उन्होंने अनेक बार मेरे कथन पर, और भारतीय जनता के बारे में मैं जो कहता हूं उस पर अकसर विश्वास किया है। मैं अत्यन्त गर्व और प्रसन्नता के साथ इसका उल्लेख कर रहा हूं। मैं इसका उल्लेख यह दिखाने के लिए कर रहा हूं कि ब्रिटिश राष्ट्र के प्रति, साम्राज्य पर से मेरा विश्वास उठ गया, तब उस अंग्रेज को जो इस साम्राज्य का वाइसराय था, इसके बारे में मालूम हो गया।

इसके अतिरिक्त चार्ली एण्ड्रयूज की आत्मा मेरे इर्द-गिर्द मंडराती रहती है। मुझे तो उनमे अंग्रेजी संस्कृति की सबसे उज्ज्वल परंपरा का सार मिलता है। मेरे उनके साथ इतने घनिष्ठ संबंध थे, जितने बहुत-से भारतीयों के साथ नहीं रहे हैं। मुझे उनका विश्वास प्राप्त था। और मुझे कलकत्ता के बिशप(डॉ.वेस्टकोट) का तार मिला है, जिसमें उन्होंने मुझे अपना आशीर्वाद दिया है, हालांकि मैं जानता हूं कि वे मेरे इस काम के विरुध्द हैं। मैं उन्हें धार्मिक व्यक्ति मानता हूं। उनके हृदय की भाषा को मैं समझ सकता हूं और मैं जानता हूं कि उनका हृदय मेरे साथ है।

इस पृष्ठभूमि के साथ मैं संसार के सम्मुख यह घोषणा करना चाहता हूं कि इसके विपरीत  लोग चाहे कुछ भी कहें, और हालांकि मैं पश्चिम में अपने बहुत-से मित्रों का आदर-भाव और विश्वास खो बैठा हूं तथा इसका मुझे खेद है, लेकिन उनकी मित्रता या पेम की खातिर भी मुझे अपने हृदय की आवाज को, जिसे आप चाहें तो ‘अंतरात्मा वह सकते हैं अथवा चाहें तो ‘मेरी आंतरिक मूल प्रकृति की प्रेरणा’ कह सकते हैं, दबाना नही चाहिए। मेरे भीतर कोई चीज है जो मुझे अपनी व्यथा को वाणी देने के लिए बाध्य कर रही है।

मैं आपको यह भी बता दूं कि मैं इंग्लड को अथवा इस दृष्टि से अमेरिका को भी स्वतंत्र देश नहीं मानता। ये अपने ढंग से स्वतंत्र देश हैं, पृथ्वी की अश्वेत जातियों को दासता के पाश् में बांधे रखने के लिए स्वतंत्र हैं।

क्या इंग्लैंड और अमेरिका आज इन जातियों की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं? आप स्वतंत्रता की मेरी परिकल्पाना को सीमित न करें। अंग्रेज और अमेरिकी शिक्षकों ने, उनके इतिहास ने, उनके शानदार काव्य ने यह नहीं कहा है कि आप स्वतंत्रता की व्याख्या का विस्तार न करें। मुझे विवश होकर कहना पड़ रहा है कि स्वतंत्रता की मेरी व्याख्या के अनुसार, वे उनके कवियों और शिक्षकों ने जिस स्वतंत्रता का वर्णन किया है, उससे बिलकुल अपरिचित हैं। यदि वे सच्ची स्वतंत्रता को जानना चाहेते हैं तो उन्हें भारत आना चाहिए। उन्हें यहां अभिमान और अहंकार-भाव से नहीं बल्कि सच्चे सत्यान्वेषी की भावना से आना होगा।

यह वह मूल भूत सत्य है जिसका पिछले 22 वर्षो से भारत प्रयोग कर रहा है। बहुत पहले, अपने स्थापना-काल से ही कांग्रेस जनजाने ही उस चीज का त्याग करके चलती रही है जिसे संवैधानिक तरीका कहा जाता है, हालांकि ऐसा करते हुए भी वह अहिंसा पर कायम रही है। दादाभाई और फीरोजशाह, जो कांग्रेस भारत के सर्वेसर्वा थे, संवैधानिक तरीके पर आरूढ़ रहे। वे कांग्रेस के पेमी ािs। वे इसके मालिक थे। लेकिन सबसे पहले वे सच्चे सेवक थे। उन्होंने हत्या, गोपनीयता और ऐसी अन्य बातों का कभी समर्थन नहीं किया। मैं यह स्वीकार करता हूं कि हम कांग्रेसियों में कई खराब लोग हैं। लेकिन बड़े-से-बड़े पैमाने पर अहिंसात्मक संघर्ष छेड़ने के लिए मैं सारे भारत पर भरोसा करता हूं। मानव-स्वभाव की नैसर्गिक अच्छाई पर मुझे भरोसा है, जो सत्य को जान लेता है और संकट के समय मानो अंत पेरणा से काम करता है। लेकिन यदि आपने इस विश्वास में मै ठगा जाता हूं तो भी मैं विचलित नहीं होऊंगा।

आज यहां विदेशी समाचार पत्रों के प्रतिनिधि इकट्ठे हुए हैं। इनकी मार्फत मैं संसार से कहना चाहता हूं कि मित्र-राष्ट्रों के सामने, जो कहते हैं कि उन्हें भारत की जरूरत है, आज यह सुअवसर है कि वे भारत को स्वतंत्र घोषित कर दें और इस तरह अपनी सदाशयता सिध्द करें। यदि वे ऐसा नहीं करते तो वे अपने जीवन में मिले इस सुअवसर को खो देंगे और इतिहास के पृष्ठों में यह बात सदा के लिए अंकित हो जाएगी कि उन्होंने समय पर भारत के प्रति अपने दायित्व का पालन नहीं किया और लड़ाई हार गए। मैं समस्त संसार की शुभकामनाएं चाहता हूं, जिससे कि उनके साथ अपने प्रेयास में मैं सफलता हासिल कर सकूं। मानवता के इस विशाल सागर को संसार की मुक्ति के कार्य की ओर तब तक कैसे पेरित किया जा सकता है जब तक कि उसे स्वयं स्वतंत्रता की अनुभूति नहीं हो जाती? आज उसमें जीवन का कोई चिह्न शेष नहीं है। उसके जीवन के रस को निचोड़ लिया गया है। यदि उसकी आंखें की चमक को वापस लाना है तो स्वतंत्रता को कल नहीं बल्कि आज ही आना होगा। इसलिए मैंने कांग्रेस को यह शपथ दिलवाई है और कांग्रेस ने यह शपथ ली है कि वह करेगी या मरेगी।

पांच बजे सुबह 9 अगस्त, 1942

हर व्यक्ति को इस बात की खुली छूट है कि वह अहिंसा पर आचरण करते हुए अपना पूरा जोर लगाए। हड़तालो और दूसरे अहिंसात्मक तरीकों से पूरा गतिरोध (पैदा कर दीजिए )। सत्याग्रहियों को मरने के लिए, न कि जीवित रहने के लिए, घरों से निकलना होगा। उन्हें मौत की तलाश में फिरना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए। जब लोग मरने के लिए घर से निकलेंगे केवल तभी कौम बचेगी।

करेंगे या मरेंगे

पहले दो अंश 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में दिए भाषणों से हैं। तीसरा छोटा-सा अंश 9 अगस्त की सुबह देश के लिए दिया गया संदेश है। यह भी अंग्रेजी में ही था लेकिन संदेश के नीचे के शब्द हिन्दी में उनकी लिखाई में थे। संपूर्ण गांधी बांगमय में यह सामग्री पश्चिम बंगाल सरकार के गुप्तचर विभाग के उप-महानिरीक्षक कार्यालय में उपलब्ध दस्तावेजों से ली गई है।

 

 

स्त्रोत : (सौजन्यः गांधी विचार- गवेषणा, संयुक्तांकः वर्ष-४ जुलाई-दिसम्बर. २००४ अंक २
एवं वर्ष-५ जनवरी-जून, २००५ अंक १)
 

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